आज देव-शयनी एकादशी है। मान्यता है कि इस दिन कल्याण करने वाले भगवान विष्णु चार माह के लिये दैत्य-राज बलि के धाम में चले जाते हैं । मान्य यह भी है और जैसे नाम से भी ज्ञात होता है कि वे चार माह के लिये शयन करते हैं । सभी प्रकार के विवाह-आदि मंगल-कार्य चार माह के लिये स्थगित हो जाते हैं ।

विशेष प्रावधानों में इन चार-मासों (चतुर्मास) में व्रत लेने का विधान है, नियम है।

व्रत – हमें जिस भी कार्य की आदत पड़ने लगे उस को कुछ निश्चित समय के लिये स्थगित कर देना ही व्रत है। सबसे ज्यादा हम लोगों की आदतों में खाना खाने की आदत ही देखने में आती है, अतः सब खाना छोड़ना ही व्रत समझते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है। हम और आप जिस भी कार्य-स्थिति-व्यक्ति आदि किसी भी अवस्था या कार्य के बिना ही ना रह पायें, या ऐसा कहें कि उस से आपको अत्यधिक मोह हो, तो ये चार माह आप उससे दूर रह कर व्रत रख सकते हैं । भगवान विष्णु जो देवी लक्ष्मी से अत्यधिक मोह रखते हैं, वे इन चार माह में उनसे पृथक होकर व्रत-साधना करते हैं, और यही इस कथा का मर्म है।

अतः हमें उक्त तरह से इन चार-माहों में व्रत-उपवास-साधना करना चाहिए व ज्यादा से ज्यादा ईश्वर भजन-कथामृत में लगा कर साधना करनी चाहिए ।

चातुर्मास्य-व्रतविधान

स्वस्थशरीर के साथ ही मन, बुद्धि, चित्त और अहड्कारादि की
परिशुद्धि के लिये शास्त्रों ने चातुर्मास्यव्रत का विधान किया है । कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि यह ब्रत संन्यासियों के लिये ही है । परन्तु शास्त्रसिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी- इन चारों आश्रमों, चारों वर्णो तथा सभी सम्प्रदायवादियों के द्वारा यथाधिकार इस ब्रत का अनुष्ठान करना चाहिये | यह ब्रत सबके लिये नित्य यानी
अवश्यकर्तव्य है । ऐसा नहीं करने पर शास्त्र ने दोष बताये हैं ।

चत्वार्येतानि नित्यानि चतुराश्रमवर्णिनाम्‌ ।
नित्यान्येतानि विप्रेन्द्र व्रतान्याहुर्मनीषिणाम्‌ ॥
महाभारत ने तो इतना तक कह दिया है कि जो इस चातुर्मास्य ब्रत
का अनुष्ठान नहीं करेगा उसका सम्पूर्णवर्ष ही पापयुकत हो जायगा ।
जैसे-
वार्षिकान्‌ चतुरो मासान्‌ वाहयेत्केनचिन्नर: ।
ब्रतेन नो चेदाष्नोति किल्बिषं वत्सरोद्धवम्‌ ॥
वर्ष के चार मासों में इस ब्रत का आचरण किया जाने के कारण इसे “चातुर्मास्थ” कहा जाता है । ये चारों मास- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्त्तिक- वर्षाकाल के रूप में प्रसिद्ध हैं, अत: इन दो ऋतुओं के व्रत को “वर्षतुत्ग॒त” यानी “वर्षा ऋतु का व्रत’ भी कहा जाता है ।

यह व्रत आषाढ़मास के शुक्लपक्ष की एकादशी, द्वादशी या पूर्णिमा
से प्रारम्भ किया जाता है, अथवा सौरमासानुसार कर्कसंक्रान्ति से भी इसके
आरम्भ का विधान है । सुविधानुसार शास्त्रों ने इस ब्रत के लिये अन्य
पक्ष भी प्रस्तुत किये हैं, यथा- कर्कसंक्रान्ति से लेकर तुलासंक्रान्ति तक
कभी भी इस ब्रत को ग्रहण किया जा सकता है । यह विधान उनके लिये
है जो पूरे चार मास तक ब्रत में नहीं रहना चाहते । परन्तु इन चार मासों में कभी भी ब्रत प्रारम्भ किया जाय तो भी कार्त्तिकशुक्लपक्ष की उत्थान द्वाएशी को ही इसका समापन करना चाहिये । कदाचित्‌ कार्त्तिक में अधिकमास की प्रवृत्ति हो जाय तो इसे शुद्ध द्वितीय कार्त्तिकशुक्ला द्वादशी
में समाप्त करना चाहिये ।
आषाढशुक्लद्वादश्यां पौर्णमास्यामथापि वा ।
चातुर्मास्यव्रतारम्भ॑ कुर्यात्‌ कर्कटसंक्रमे ॥
अभावे तु तुलार्केउपि मन्त्रेण नियमं व्रती ॥ वराहपुराण
अर्थात्‌ पूरे चार मास का ब्रत न करने की स्थिति में अन्तिम के एक माह का नियम तो अवश्य ही रख लेना चाहिये ।

निर्णयसिन्धु में भी इस व्रत को ग्रहण करने के चार प्रकार बताये
गये हैं, जैसे- श्रावण से कार्त्तिक, भाद्रपद से कार्तिक, आश्विन से कार्त्तिक
अथवा तुलासंक्रान्ति से कार्त्तिकशुकला द्वादशीपर्यन्त ।
चतुर्धा ग्राह्म वै चीर्ण चातुर्मास्यव्रतं नर: ।
कार्त्तिके शुक्लपक्षे तु द्वादश्यां तत्समापयेत्‌ ॥

सम्प्रति अधिकतम सनातनधर्मावलम्बियों में इस चातुर्मास्यव्रत को दो
मास- श्रावण और भाद्रपद में ही रखने की परम्परा बन गई है । यह पक्ष
भी सही ही है ।

चातुर्मास्य के समय में कुछ वस्तुओं का त्याग अत्यन्त लाभप्रद
बताया गया है, जैसे- इन चार मासों में गुड़ का त्याग कर देने से मधुर
ध्वनि यानी स्वर अच्छा होता है । खाने अथवा शरीरमर्दन में तैल
“विशेषत: तिल के तैल’ का परित्याग कर देने से सुन्दर अद्भ या सुन्दर
शरीर की प्राप्ति होती है, शरीर में कान्ति आती है ।

मधुस्वरों भवेन्नित्य॑ नरो गुडविवर्जनात्‌ । तैलस्थ वर्जनादेव सुन्दराड्र: प्रजायते ॥ कृत्यतत्त्व उत्तरभारत में (विशेषरूप से मिथिलाक्षेत्र में) इस ब्रत का आचरण देखा जाता है । वहाँ मातायें तो परम्परावशात्‌ ही इन नियमों का पालन करती हैं । प्राय: घरों मे इस चातुर्मास्य के विधि-निषेधों का पालन
सामान्येन अनिवार्य देखा जाता है ।

इस व्रत का आचरण करनेवाले उपवासपूर्वक निद्रामुद्रा से युक्त
श्रीमन्‍नारायण भगवान्‌ का ध्यान, स्तोत्र और सर्वोपचारपूजा आदि से
विधिवत्‌ आराधना करते है । लौकिककार्यों को कम करके ब्रह्मचर्य के
नियमों का पालन करते हैं । इस ब्रत में ब्रती को दृढ़ता से राग, द्वेष और
मिथ्यासम्भाषणादि असत्कृत्यों का परित्याग कर देना चाहिये । ब्रतदीक्षा के अनुसार ही ब्रती की वेश-भूषा और रहन-सहन का विधान है । ब्रती को
मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसामात्र का परित्याग कर देना चाहिये ‘ शास्त्र ने जिस आहार का निषेध किया है, उसका परित्याग अनिवार्य रूप से करना चाहिये यद्यपि कभी भी दूषित आहार-विहार का
सेवन निषिद्ध है, तथापि इन चार मासों में तो किसी भी प्रकार के मद्य,
मांसादि का प्रयोग नहीं ही करना चाहिये । इन चार मासों में ही वर्षा आदि के कारण अनेक प्रकार के दूषितकीटाणुओं की उत्पत्ति एवं उनके सम्पर्क में आ जाने से विविधप्रकार के असाध्य घातकरोगों की सम्भावना बनी रहती है । श्रावणमास में सभी प्रकार के शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्त्तिक में दाल का वर्जन करना चाहिये ।

श्रावणे वर्जयेच्छाक॑दधि भाद्रपदे त्यजेत्‌ । डुग्धमाश्वयुजे मासे कार्ततिके द्विदलं त्यजेत्‌ ॥ पद्मपुराण

शाक और हविष्यान्नादि सम्बन्धी निर्णय को धर्मशास्त्रीय विद्वानों से ग्रहण करना चाहिये । दो दल में विभकत होनेवाले सभी धान्य, बहुत से
बीजवाले फल और वृन्ताक यानी हरे एवं सफेद लम्बे बैगन का परित्याग कर देना चाहिये । इन चार मासों में कूष्माण्ड, बेरफल, तिन्त्रिणी यानी चिझ्लाफल अर्थात्‌ इमली, मूलक यानी मूली आदि, इक्षु यानी गन्ना और अम्लत्वगुणयुकत आँवला आदि का त्याग कर देना चाहिये | इन चार
मासों में उत्पन्न होनेवाले शाकों का परित्याग शरीर आदि के लिये लाभप्रद
होता है । इस समय हविष्यान्नभोजन की अत्यन्त प्रधानता है ।

द्विदलं बहुबीज॑ च वृन्ताकं च विवर्जयेत्‌ । विशेषादूबदरीश्ात्रीं कृष्पाण्डन्तिन्तरिणीन्त्यजेत्‌ ॥ तत्तत्कालोद्धवा: शाका वर्जनीया: प्रयत्नत: । चतुष्त्रपीह मासेषु हविष्याशी न पापभाक्‌ ॥ ८
आयुर्वेदादिशास्त्रों में पत्र, पुष्प, फल, नाल, कन्द और संस्वेदज के
भेद से छ: प्रकार के शाक बताये गये हैं जो पचने में उत्तरोत्तर क्रमश: एक
दूसरे से भारी होते हैं ।
पत्र पुष्पं फलं नाल॑ कन्दं संस्वेदजं तथा । शाक षड्विधमुद्दिष्टं गुरू विद्याद्यथोत्तरम्‌ ॥
इस समय के प्राय: सबप्रकार के शाक पचने में भारी होने के कारण शरीर, अस्थि, नेत्र, कान्ति, वर्ण, रक्त, शुक्र, प्रज्ञा, केश, स्मृति और सच्चिन्तन को कुण्ठित कर देते हैं ।

प्राय: शाकानि सर्वाणि विष्टम्भीनि गुरूणि च । रुक्षाण बहुवर्चास सृष्टविण्मारुतानि च ॥ शाक भिनत्ति वपुरस्थि निहन्ति नेत्र वर्ण विनाशयति रक्तमथापि शुक्रम्‌ । प्रज्ञक्षयं च कुरुते पलितं च॒ नून॑ हन्ति स्मृर्तिं गतिमिति प्रवदन्ति तज्ज़ा: ॥।
इसी प्रकार से समयानुसार हविष्यान्नविधायक वचन भी शास्त्रों में उपलब्ध हैं । काम्यदृष्टि से गुड, तैल, कटुतैल, ताम्बूल, घृत, फल,
शाकपत्र, दधि और क्षीर का त्याग करनेवाले क्रमश: मधुरध्वनि, सुन्दर
शरीर, शत्रुनाश, सुखभोग, लावण्य, बुद्धिशक्ति, भाग्यवान्‌ पुत्र, पक्वात्न
का लाभ और अन्त में भगवद्धाम तक को प्राप्त करते हैं ।
इन मासों में श्रावण से कार्त्तिकपर्यन्त व्रत-त्योहार ही भरे पड़े हैं ।

इन ब्रत-त्योहारों में विशिष्ट कर्मकाण्डीय उपचारों से भगवदाराधन के द्वारा विविधप्रकार से शरीर, अन्तःकरण और वातावरण आदि की शुद्धि करनी ही चाहिये । इन चार मासों में वर्षा और शरत्‌ के प्रभाव से अनेकविध भयानकरोगों का आक्रमण भी सहजता से हो जाया करता है । इनसे बचने के लिये ही इन चार मासों में शास्त्रों ने सबसे अधिक हितकर ब्रत-अनुष्ठानों का विधान बताया है । जिनका सम्पादन अनिवार्यरूपेण करना चाहिये।

इन मासों में गोसेवा की दृढ़ता का सड्जुल्प सबप्रकार से कल्याणकारी होता है । प्रकृति और पृथिवी आदि भी इन चार मासों में गोसेवार्थ विशेषरूप से नियुक्त होती हैं । ये इन्हीं चार मासों में गोवंश की परिपुष्टता के लिये सर्वाधिक घास-चारे और वत्स तक की व्यवस्था
करती हैं । इस समय प्रकृति और पृथ्वी आदि की सेवा से परिपुष्ट होकर सभी भाग्यवानों को गोसेवा का दुढ़तम संकल्प लेना चाहिये ।

इन नियमों के साथ शास्त्रों के अनुसार संन्यासियों के कुछ विशेष नियम भी होते हैं । संन्यासी आषाद्पूर्णिमा को सड्भवकाल में क्षौर कराके व्रत को आरम्भ करे । ब्रत की समाप्ति तक मध्य में क्षौर न कराये । नदी, पर्वतादि का उल्लब्डन न करे, एककोश से अधिक की यात्रा न करे
आदि-

आषाब्यां पौर्णमास्यां तु व्नं कारयेह्यति: । तेषु मासेष केशादीनृतुस्यौ न वापयेत्‌ ॥ नदीशच न तरेत्तेषु । क्रोशादूर्धव न च वजेतू ॥
प्राणिमात्र के कल्याण की कामना से संन्यासी यह स्डूल्प ले कि

लोककल्याणार्थ ही भगवान्‌ श्रीमन्नारायण शेषशय्या पर चारमास तक शयनकरेंगे, तब तक मैं भी एक स्थान में ही निवास करूँगा । आप गृहस्थ महानुभावों को यदि यहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं तो मैं यहीं निवास करना चाहता हूँ, आपलोग यथोक्‍त अपने कर्तव्य का पालन करें ।

इसके बाद उनके शिष्यवर्ग भी ऐसा सड्डल्प ले कि हमलोग भी अपनी शक्ति के अनुसार आपकी सेवा करके कृतार्थ होना चाहते हैं, हम
आपकी आज्ञा के पालन में सर्वथा तत्पर रहेंगे । ऐसा सड्जल्प करके गुरु के पास ही निवास करे । उस समय वेदव्यास, सनकादि, श्रीगणेश, दुर्गा, सरस्वती, क्षेत्रपाल, व्यासशिष्य पैलु आदि और गुरु की आराधना करनी
चाहिये ।

यदि चार मास तक ब्रताचरण सम्भव न हो तो परम्परादृष्ट श्रावण और भाद्रपद के इन दो मासों में ब्रतनियम करना ही चाहिये । चातुर्मास्य में ब्रतियों को स्थानीय तात्कालिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्ममुहूर्त से लेकर रात्रि के शयनपर्यन्त की आध्यात्मिक दिनचर्या के अनुसार अपने समय का सदुपयोग करना चाहिये ।

ब्रत की समाप्ति के पश्चात्‌ वेदज्ञ ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक बुलाकर
उनके लिये गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, और वस्त्र आदि का दान देना चाहिये । पुनः
स्नान करके मृत्तिका आदि के शेष को जल में विसर्जित करे और पूर्व या
उत्तरदिशा की ओर यात्रा करके अपने आश्रम या स्थान पर लौट आये ।

यदि व्रत के समय मौन धारण किये रहे तो और भी उत्तम है अथवा ध्यान, जप, तप, कीर्तन और वेदादिशास्त्रों का पारायण तो करना ही चाहिये ।

श्रौतग्रन्थों में चातुर्मास्य नामक यज्ञ का भी विधान है, जिसका सम्पादन फाल्गुन (या चैत्र), आषाढ एवं कार्त्तिक की पूर्णिमा के दिनों में करना बताया है, जिन्हें क्रम से वैश्वदेव, वरुणप्रघास एवं साकमेध नाम से पुकारे जाते हैं (आपस्तम्ब श्रौतसूत्र ८।४।१३)।

चातुर्मास्य की विशेष जिज्ञासा हेतु गरुढडपुराण (११२१९),
भ्विष्यपुराण (६-९), कृत्यतत्त्व (पृ.४३५), कालविवेक (पृ.३३ २),हेमाद्वि
(व्रतखण्ड भाग २, पृ.८०६), तिथितत्त्व (पृ.१११), व्रतप्रकाश, व्रतार्क आदि
द्रष्टव्य हैं ।

शा्त्रों में चातुर्मास्यत्रत के विधि-निषेधों के सभी पक्षों पर विस्तृत
चर्चा उपलब्ध है, विस्तार न करके यहाँ केवल संक्षेप में सारमात्र का ही
दिग्दर्शन प्रस्तुत किया गया है । जिज्ञासु इससे लाभ प्राप्त करें ।

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