महाग्रंथ- महाभारत के बारे में एक मिथक – भाग 4

मन में दो प्रवृत्ति हैं
१. कौरव
२. पांडव
>>कौरव कहते हैं कि और आवे ,आता ही जावे ,छल से आवे या बल से आवे
कौरव = कहो और आवे

>>पाण्डव –
इन्हें सांसारिक चीजें पाने की लालसा नहीं है इन्हें देव पाने हैं ।
ये धर्म की राह पर चलने वाले हैं
पांडव = पाना देव = लक्ष्य है देवत्व पाना
कौरव और पांडव एक ही मन की अलग अलग दो प्रकार की इच्छाएं हैं अतः हैं तो ये भाई भाई पर एक दुष्ट प्रकृति से भरे हैं और एक देव प्रवृत्ति से ।
स्वाभाविक है इनमें शत्रुता तो रहनी ही है ।
मन में एक समय पर दो भावनाएं एक साथ उतपन्न नहीं हो सकती ।
मन में त्याग और देवत्व की भावना भी उत्पन्न हो जाए और पाते जाने की भावना भी उत्पन्न हो जाए ऐसा सम्भव ही नहीं है।
अतः ये हैं ही एक दूसरे के शत्रु ।
ये (कौरव) देवों को पाने की इच्छा को जला कर मार डालना चाहते है उन्हें अच्छा या और अच्छा चाहिए ।
उनका मन कहता है देवत्व और धर्म की बात को जला दे मिटा दे और अच्छा अच्छा ला ।
अतः कौरव पांडवो को ला+अच्छा गृह में जला के मार देना चाहते हैं ।
स्पष्ट है जब आपमें अच्छा अच्छा ही पाने की भावना होगी तो आपके मन का कौरव आपके भीतर के पांडव (पाना देव ) को जला देगा ।
तो देखो कहीं आपके मन में बैठे कौरव आपके मन के पांडवों को ला अच्छा गृह में जला तो नहीं रहे हैं ।

आरम्भगुर्वी क्षयणी क्रमेणः
लघ्वी पुरा वृद्धमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
सच्चे और दुर्जन व्यक्तिकी मैत्री दिन के पूर्वार्ध और परार्ध की छायाकी भाँति आरम्भमें सघन फिर क्षीण, परंतु सच्ची मित्रता प्रारम्भ में क्षीण तथा कालान्तरमें कितनी सघन हो जाती है।
-जय श्रीजी की।।
-जय शिवशम्भु।।

– सौजन्य से श्री आनंद बाबा महाराज

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