हमारे पड़ौस में राजवंशी साहब रहते हैं । बेटे की सगाई हुई तो एक मंजिला मकान को दो मंजिला करने का निश्चय किया। नई बहु के लिये पुराने रसोड़े को नई मोड्यूलर किचिन में परिवर्तित करने की आवश्यकता दिखी। काम शुरु हुआ। ठेकेदार के साथ राजवंशी साहब व भाभी जी की मशक्कत व मजदूरों की चिल्लाचोट पड़ौस में दिखने लगी। रोज शाम को राजवंशी भाभी सीमेंट-रेता की सफाई करती दिखतीं व कहतीं, पता नहीं कब यह मंजिल बनेगी और जान छूटेगी – कब परिवर्तन यथार्थ रूप लेगा और मुक्ति मिलेगी। ,,,,कितना रेता खाने के साथ उनके पेट में गया, कितनी बार थक कर बाहर झूले पर बैठे-बैठे आंख लग गई, कितनी बार बेटा नौकरी पर बिना टिफिन लिये गया, कितनी बार राजवंशी साहब बाहर से खाना लेकर आये। बजट जो बारह-पंद्रह लाख का सोचा था वह पच्चीस पार कर चुका था। अकेले किचिन में पांच लाख लग गये। जो बदलाव की आवश्यकता दिखी और निश्चित किया गया, उसकी कीमत चुकाई जा रही थी। धन से भी व तन से भी। यही तो परिवर्तन का नियम है। आज रसोड़ा नई मोड्यूलर किचिन में बदल चुका है, ऊपर बेटे-बहू के लिये नई मंजिल बन कर तैयार हो चुकी है। पेन्ट आदि फिनिशिंग का काम पूरा हो चुका है। सुसज्जित-परिवर्तित घर को निहार रहे, बाहर खड़े राजवंशी साहब व भाभी परिवर्तन की प्रक्रिया की सभी पीड़ा को भूल, मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं और प्रफुल्लित हो रहे हैं । यही तो परिवर्तन के परिणाम की परिणति है। यही वास्तव में सृजन की प्रक्रिया है।

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नया कुछ करने हेतु पुराने को हटाना व हटना ही पड़ता है। नया जब तक नहीं आता तब तक सभी को नयेपन का आभास अखरता है, बुरा लगता है, दुष्कर लगता है, और जब तक परिणाम नहीं आ जाता, असमंजस की स्थिति रहती है। इसको हम इस तरह भी कह सकते हैं कि पुराने को, जो चल रहा होता है उसके हटने भर का ख्याल अखरता है, बुरा लगता है । परन्तु नया जब यथार्थ बनता है तो सुखद अनुभूति देता है।
मानव स्वभाव वैसे तो मूलतः बदलाव का विरोधी है, परन्तु बदलाव की चाहत मन को उद्वेलित करती रहती है, प्रेरित करती रहती है। यह मानव की बुनियादी प्रकृति है। थोड़ा चलने पर अपनी चाल को बदलने का विचार मन में आता है परन्तु वह डरता है कि कहीं चाल बदलने पर गिर ना पड़े इसलिए वापस पुरानी चाल पर लौट जाता है। और यह भी बुनियादी प्रकृति है कि बदलाव हो जाने पर, परिवर्तन हो जाने पर उसे अच्छा लगता है। मजे की बात यह है कि परिवर्तन का ख्याल उसे सदैव रोमांचित तो करता है, उसे कुछ नया करने की ओर प्रेरित तो करता है, जोश भी भरता है, उद्वेलित करता है। परन्तु उस बदलाव की प्रक्रिया की विषमताएं, परेशानियां, दुश्वारियां, उसे परेशान करती हैं, हताशा देती हैं, निराशा देती हैं।

बदलाव का दृढ़ निश्चय बदलाव ला सकता है परन्तु मजे-मजे में, बैठे-बैठे विचारे गये परिवर्तन से भी इतिहास बदलते देखे गये हैं । इतिहास इसका भी साक्षी है कि आकस्मिक घटना सब कुछ बदल कर रख देती है। चाहे दृढ़ निश्चय हो या बैठे-बैठे उपजे विचार या कोई आकस्मिक घटना, परिवर्तन लाने को मन स्वीकार तो करता है परन्तु फिर नये परिवर्तन की सोचने लगता है, जो परिवर्तन हुआ उसका विष्लेषण करता है। वर्षा के बाद जो धरती से सौंधी ख़ुशबू उठती है और प्रकृति खिल उठती है, मन का मयूर भी मचल जाता है। यह बताता है कि विप्लव के बाद शान्ति मिलती है। परिश्रम से किये गये मन्थन से प्रारंभ में या प्रक्रिया के दौरान विष भले निकले परन्तु सब के बाद अमृत मिलता ही है।

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श्रीकृष्ण जन्म से अवतार रूप पूजित नहीं हुऐ। समाज में देश में, बात में व्यवहार में, परिवर्तन हेतु जीवन भर संघर्षशील रहे । स्वपरिवार-स्वहित का बलिदान दिया और युग-पुरुष बने। उनकी गोकुल व वृन्दावन में की गई अठखेलियां उन्हैं मनमोहन तो बना सकती हैं पर श्रीकृष्ण नहीं। एक घर में भाई-भाई की तक़रार का सहारा ले नये समाज का, देश का, नये परिवेश का सृजन किया। कीमत उन्होंने भी दी, तन से भी और धन से भी। कलिकाल के नवकाल का स्वागत सर्वस्व निछावर कर के किया। जो सर्वोत्तम था उसे प्रतिष्ठित किया। अपने परिवार व समाज से ऊपर उठ कर देशहित में पांडवों के प्रताप को प्रतिस्थापित किया। आरोप अपने सर लिया परन्तु इतिहास ने उन्हें अमर कर दिया। धर्मसंस्थापनार्थाय सृजन की प्रक्रिया को चरितार्थ किया।

परिवर्तन से नव-पल्लव अंकुरित होते हैं, बीज का सृजन दो वृक्षों से छूटे रस और गंध के सुखद मिलन से होता है। बीज का आवरण कठोर होता है जो उसे नव-जीवन अंकुरित करने के लिये आवश्यक है, नहीं तो बीज नष्ट हो सकता है। कठोर आवरण पर जब प्रकृति अपनी ममता उडेलती है तो नव-पल्लव का सृजन और नये वृक्ष-वंश का उदय होता है।
भावनाओं से ओतप्रोत आनंदित युगल जब नव-जीवन हेतु निर्णय लेते हैं तो बीज मातृत्व की कोख में पड़ता है। नव-मास का कष्ट मां के आंचल में दूध आने मात्र से फुर्र हो जाता है । यही तो प्रकृति का चमत्कार है, सृजन की प्रक्रिया है।

यही प्रकृति को चरैवेति-चरैवेति के नियम की पालना करवाता है और सृष्टि का पुनः पुनः नवनिर्माण निरन्तर अनन्त की अवधारणा को प्रतिष्ठित करता है। यही सृजन है व यही सृजन की प्रक्रिया है। आओ हम सब मिलकर परिवर्तन का स्वागत हर्षोल्लास से करें व प्रकृति के सृजन के परमुद्देश्य को चरितार्थ होने में सहायता करें ।


लेखक
श्रीविद्येश माथुर-चतुर्वेद
मोबाइल नंबर- 9216601166

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