Story

साकार कि निराकार

Share

(धर्म-कर्म, पांचवी कहानी)

गाड़ी सरपट दौड़े जा रही थी, पता नहीं कब आंख लग गई और हम सब गहरी नींद में चले गये। सुबह सुबह चाय-चाय की आवाज़ ने आंख खुलवा दी। नीचे उतर खिड़की से बाहर देखा तो सूर्य देव निकलते दिखे। मैंने सूर्य देव को प्रणाम किया और चाय वाले को आवाज़ दी। चाय वाला दौड़ा आया। चाय ली व नीचे की सीट पर पांव की तरफ जगह देखकर पर बैठ गया। चाय की चुस्कियां ले ही रहा था कि सभी उठ बैठे। देखा हमारे कोच में एक युवा और शामिल हो गया था, शायद रात में चढ़ा होगा।
मैंने नमस्कार मुद्रा में अभिवादन किया और पूछा, “चाय लेंगे”। उसने स्वीकारोक्ती दी तो मैंने चाय वाले को फिर बुलाया। तब क्या था, सब उठ बैठ गये और सभी ने चाय ले ली। सभी चाय की चुस्कियां लेने लगे। सवेरे सवेरे का समय, हलकी ठंडक थी हवा में। सूर्य देव भी नरम थे। चाय की चुस्कियां मज़ा दे रही थी।

“भाई एक बात बताइए, आपने सूरज की तरफ देखकर प्रणाम किया, ऐसा क्यों ?” अशोक ने उत्सुकता से अधिक धिक्कार दृष्टि ज्यादा दे कर पूछा था “क्या सूरज तुम्हारे प्रणाम करने से आज गरमी कम करने वाले हैं ?”
मैंने भी भाव समझकर सरलता से कहा -“नहीं, ऐसा तो नहीं “

“तो फिर सूरज को देख हाथ क्यों जोड़े?” उसकी आवाज़ में तल्खी थी।

“यह हमारी परंपरा में है भाई! हमारी परंपरा हमें सिखाती है कि जिससे भी आप अगर कुछ लेते हैं तो उसके प्रति कृतज्ञ भाव से धन्यवाद करें। और यही मैंने किया। सूर्य देव से हमें क्या मिलता है यह तो बताना जरूरी नहीं ना ?”

“फिर तो बस पागल ही हो जाओ, पेड़ से भी कुछ मिलता है, हवा से, रेल से, गाय से, भैंस से, गधे से, घोड़े से, सभी से हमें कुछ ना कुछ तो मिलता है तो बस प्रणाम ही करते रहो सब को, वावले हो जाओ।”

“आप जब कर सकते हैं तब करें और ना भी करें तो कोई बात नहीं, वो कौन सा आपसे कुछ कह रहे हैं या अपने दिये हुये के एवज में कुछ रिटर्न मांग रहे हैं।” मैंने उनकी तल्खी का नरम स्वर में जवाब दिया था।

तभी युवा बोला -” आपके यहाँ तो समझ ही नहीं आता कि किसकी पूजा करें और किसकी ना करें? कितना काॅमप्लिकेट सिस्टम है। कोई कहता है मूर्ति में भगवान देखो, कोई कहता है कण-कण में शंकर है, कोई कहता है हमारे अंदर ईश्वर है तो क्यों बाहरी तत्वों को पूजना, कोई साकार को पूजने को कहता है कोई निराकार को। भाई बहुत काम्पलिकेटिड सिस्टम है, अच्छा है आज का युवा इससे दूर है।”

“इसमें कोई काम्पलिकेशन नहीं। रही बात युवा के हमारी संस्कृति से दूर होने की, तो निश्चिंत रहें, जब हम उनको समझा पायेंगे तो वह समझ जायेंगे। यह सही है कि हमारी सनातन व्यवस्था में किसको पूजा जाये, सगुण, साकार या निर्गुण, निराकार को, यह दुविधा रहती है, पर आप सभी को बताऊँ कि देवी भागवत में लिखा है –
“सगुणा निर्गुणा चेति द्विधा प्रोक्ता मनीषिभिः।
सगुणा रागभिः प्रोक्ता निर्गुणा तु विरागभिः। ।”
अर्थात, संसारी-रागी या गृहस्थ मनुष्य सगुण साकार-स्वरूप का एवं विरागी या सन्यस्थ-सन्यासी मनुष्य निर्गुण निराकार को पूजे।”

तभी बैठे बुजुर्ग बोले – “परंतु भगवत् गीता कहती है कि मुझको शरीर से न्यारा समझ, आत्म भाव में स्थित होकर, शरीर से डिटैच होकर, जो मुझे भजता है या मेरा ध्यान करता है वही मेरे यथा रुप को पहचान पाता है, वही मुझको प्राप्त होता है। तो पहले तो स्वयं को निराकार समझना ही पड़ेगा।”

मैंने जवाब दिया कि ” यहां संदर्भ अलग है ,, वही गीता कहती है कि कृष्ण अपने को परमात्मा तो कह रहे हैं साथ ही पृथ्वी के कई जीवों से अपने को जोड़ कर अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू मुझे वैसा ही समझ,,, उदाहरण के तौर पर पेड़ में पीपल, आदि आदि। अपने निराकार स्वरूप को साकार रूप के माध्यम से समझा रहे हैं। मेरे अनुसार निराकार और साकार रूप को पूजना भिन्न नहीं है, एक दूसरे का पूरक है। देखिये गृहस्थ व सन्यस्थ की सोच, जीवनशैली, सभी कुछ तो भिन्न है,,, गृहस्थ आंख खोलकर ध्यान में हो सकता है और उसके ध्यानस्थ होने के लिये किसी ऑब्जेक्ट की आवश्यकता होती है, इसलिये साकार पूजन उसके लिये सुगम है। जरूरी नहीं कि मूर्ति को ही निहार कर ध्यान लगाये, वह कहीं भी एवं किसी भी तरह से ध्यानस्थ हो सकता है, एकाग्र-मन हो सकता है। लाॅजिक वही कि मन एकाग्र होना और तन्मयता से ईश्वर को भजना। हम गृहस्थ तो अगर कभी जागते हुये आंख बंद कर लें तो राशन की लिस्ट, जाॅब का प्रेशर, बीबी-बच्चों की फरमाइश, बैंक की ई-एम-आई, गर्मी-सर्दी के इंतजामात, और ना जाने क्या क्या अच्छा-बुरा, आगा-पीछा दिखने लगता है। इसलिये तो भाई हम आंख खोलकर ही ध्यान या पूजन करें तो ही सुगम है, आसान है।” मैंने मुस्कुराते हुये कहा था।
“और सन्यासी के लिये क्या, बताइए ” युवा ने प्रश्न दागा।

“सन्यासी सब कुछ छोड़ चुका होता है, ना माया ना मोह,, उसे ध्यान के लिये किसी ऑब्जेक्ट की आवश्यकता नहीं होती, वह किसी भी बंधन में बंधा नहीं होता, या यूं कहें कि वह सारे बंधन तोड़कर जीवन में उन सब माया मोह से आगे निकल चुका होता है। इसलिये वह निराकार को सहजता से पूज सकता है, ध्यानस्थ हो सकता है। आंख बंद करके उसे कुछ दिखाई नहीं देता या यूं कहें कि आंख बंद करने पर उसे और कुछ माया-तत्व दिखाई नहीं देता, तभी तो सन्यासी है।”

महिला बोली – “शरीर से डिटेच- अर्थात्??”

बुजुर्ग बोल पड़े-“शरीर से डिटैच अर्थात गीता का मूल सार। हे अर्जुन! तू स्वयं को आत्मा निश्चित समझ व मुझको याद कर। हम अपने आपको आत्मा हैं, यह जानते तो हैं परंतु मान नहीं पाते, क्योंकि उसकी अनुभूति नहीं है। रसगुल्ला कैसा होता है, मैं कितना भी समझाऊं शायद आप ना समझ पाएं परंतु जिस दिन रसगुल्ला खा लेंगे उसके बाद उसका अनुभव उसका स्वाद बताने की आपको आवश्यकता नहीं होगी। गीता यही कहती है, अपने को आत्मा जान, शरीर से न्यारा। यह हम गृहस्थी में रहकर भी अनुभव कर सकते हैं। इसके लिए परिवार कर्तव्य जिम्मेदारियां छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। गीता में भी भगवान को गृहस्थ में रहते हुए जो याद करता है जैसा स्वरूप है, उसमें याद करता हैं, वही उन्हें प्रिय हैं। सन्यासी प्रिय नहीं है।”

मैं बोला – “शरीर से नहीं,,, शरीर के भोग से डिटेच,, और यही सन्यास भाव है। आपने उदाहरण दिया कि रसगुल्ला खाकर ही उसका अनुभव किया जा सकता है, बिलकुल सही। रसगुल्ला खाने के लिये व उसे समझने के लिये रसगुल्ला का फिज़िकल फार्म में होंना जरूरी है। और यही तो मूर्त रूप में होने से साकार पूजा हुई, मूर्ति पूजा हुई।”

बुजुर्ग बोले -“गुरुदेव, सब कुछ होते हुए भी शरीर से डिटैच रह सकते हैं बशर्ते कि अपनी आत्म स्मृति रहे। जैसे राजा जनक की कथा आपने सुनी होगी। अष्टावक्र का लोग शरीर ही तो देख रहे थे मूल नहीं। यही अष्टावक्र ने भी समझाने की कोशिश की।”

युवा बोला पड़ा- “हम विषय से भटक गये शायद। साकार कि निराकार का पक्ष था विषय।”

“ऐसा मुझे नहीं लगता।” बुजुर्ग बोले – “वही बात को विस्तार से समझाने की कोशिश की जा रही है।”

मैंने कहा – “जैसे ही आप अपने को आत्म-भाव में ले जाते हैं, आप सन्यस्थ-सन्यासी हो जाते हैं।,, और फिर निराकार की पूजा सहज हो जाती है। विदेह भाव भी सन्यस्थ ही है।”

बुजुर्ग बोले – “निराकार में रहते हुये भी हम जीवन जी सकते हैं, बस स्मृति होनी चाहिए अपने मूल तत्व की। जब हम शरीर छोड़ देते हैं तभी लोग हमारे मूल तत्व के बारे में कहते हैं। जब आत्मा शरीर छोड़ देती है तभी आत्मा की शांति के लिए पाठ करें, यही लोग करते हैं। शरीर की शांति के लिए पाठ करें यह कोई नहीं कहता। वास्तव में रोल प्ले कर रही थी आत्मा पर शरीर के द्वारा । और आत्मा सदा निराकार स्वरूप में ही रहती है, अदृश्य परंतु शक्तिशाली। आत्मा ही रोल प्ले कर रही थी इस साकार शरीर के द्वारा। आत्मा अदृश्य है निराकार है । परंतु सर्व शक्तिमान भी है। जैसे मोबाइल की छोटी सी चिप। हम अपने मूल स्वरूप तक पहुंच ही नहीं पाते यही वास्तव में हमारी दुविधा है और अध्यात्म तभी हमें भीतर झांकने के लिए कहता है, बाहर रहने के लिए नहीं। और भीतर तो निराकार ही मिलेंगे।”

“सही है, भीतर निराकार होंगे परन्तु मस्तिष्क में तो कोई आकृति उभरती है, और यही आकृति तो निराकार को साकार बनाती है।” मैं बोला

महिला ने प्रश्न दागा- “परन्तु कर्म करता तो शरीर है,,, आत्मा शरीर के बिना क्या कर सकती है। शरीर आत्मा का पूरक है, इसलिये शरीर भी उतना ही महत्वपूर्ण है जी। आत्मा रूपी निराकार को भी शरीर रूपी साकार की आवश्यकता पड़ती है तो शरीर महत्वपूर्ण क्यों नहीं है ? यह क्या बात हुई।”

बुजुर्ग फिर एक्सप्लेनेसन देने लगे – “वास्तव में आत्मा मूल है शरीर उसका वस्त्र है। आशा नाम के आप हैं, आपके वस्त्र आप नहीं हो सकते। यह तो आप मानेंगे?”

मैं बोला पड़ा- “आत्मा श्रेष्ठ है इसमें कोई दो राय नहीं, परन्तु बिना शरीर के वो अकर्मण्यी है। आपके ही उदाहरण में है कि चिप के बिना मोबाइल बेकार है, पर बिना मोबाइल के चिप भी तो बेकार है। इसमें भी भेद है, मेरा नाम इस शरीर का नाम है ना कि आत्मा का। आत्मा मूल है, सही है, पर शरीर-रहित पूर्ण नहीं है।”

बुजुर्ग बोले – “आत्मा श्रेष्ठ है यही बताने की कोशिश की जा रही थी आपने स्वीकार कर लिया आपका धन्यवाद। हां यह सत्य है की आत्मा बिना शरीर के अकर्मण्य ही है परंतु मूल तो आत्मा ही है उसी में हमारे स्वभाव संस्कार कर्म विकर्म संचित होते हैं, शरीर में नहीं और फल भी आत्मा अपने संस्कारों रूपी संचय के द्वारा ही प्राप्त करती है शरीर के बलवान होने ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा का कोई नाम नहीं होता शरीर का नाम होता है शरीर के नाम अलग-अलग होते हैं लेकिन आत्मा का रूप रंग एक जैसा होता है स्वभाव अलग-अलग हो सकते हैं। भाई बहनो, निवारण आज ही कर लें कल हो ना हो।”

“आत्मा में कुछ संचय नहीं होता ,, वो शरीर के बिना कुछ नहीं कर सकती।” मैं बोला- “क्यों जी, आत्मा तो अजर-अमर है ,, फिर क्यों कल नहीं होगी।”

युवा बोल पड़ा-“फिर हम विषय से भटक गये जी,,, विषय साकार और निराकार के पूजन का था ,,, कि किसे कौन सी पूजा करनी चाहिए।”

“बात निराकार को समझाने की ही हो रही है, गहन चिंतन चल रहा है निराकार को समझाने के लिए।” बुजुर्ग बोले

मैंने कहा – “निराकार को कोई भजने के लिये मना नहीं कर रहा,, यहाँ बात पूजन की सहजता की हो रही थी।”

“यदि बात सहजता की ही है तो क्यों लफड़े में पड़ना। खाओ पियो मौज करो।” बुजुर्ग हंसते हुये बोले।

युवा भी हंसने लगा और बोला -“यही तो आज की युवा-पीढ़ी कर रही है।”

मैं पुनः बात को गंभीरता पर लाना चाहते हुये बोला -“निराकार नकारा नहीं जा सकता ,,, सही है ,,, पर साकार होकर ही संसार चल सकता है, निराकार की समझ यानि कि सन्यास भाव का जाग्रत होना, मतलब मोक्ष प्राप्त।” मैंने हंस कर कहा “ईश्वर ने यह सृष्टि खेलने हेतु ही बनाई है, जो जो खेल से थक जाते हैं या रिटायरमेंट मोड में आजाते हैं, मोक्ष की तरफ चल पड़ते हैं, सन्यस्थ-सन्यासी हो जाते हैं। मेरा मतलब यहाँ सन्यस्थ व गृहस्थ भाव से है, व्यक्तिगत नहीं।”

बुजुर्ग संजीदा होकर बोले -“गुरुजी मोक्ष का अनुभव करने के लिए भी शरीर आवश्यक है और यदि शरीर में रहते ही वर्तमान समय मोक्ष का अनुभव हो जाए तो क्या बुरा है शरीर छोड़ने के बाद क्या कद्दू मोक्ष का अनुभव होगा? आप अपने मोक्ष को बिना शरीर के होना कल्पना करते हैं, मैं अपने मोक्ष को वर्तमान में जीना समझता हूं बस यही फर्क है।”

मैं बोला -“आप भी वही कह रहे हैं जो मैंने कहा ,,, आत्मा बिना शरीर के कुछ नहीं कर सकती ,,, श्रेष्ठ है इसमें कोई दो राय नहीं, पर पूर्ण नहीं।”

“साकार और निराकार की जंग चलती रहेगी अपने अपने अनुभव स्वाद वह अपनी अपनी प्राप्ति वो खुशी का तरीका। आपका दिन शुभ हो। चलो अब हाथ-मुंह धो लें व नाश्ते की तैयारी करें।” बुजुर्ग बोले

मैंने सार स्वरूप कहा -“जो शरीर में रहते हुये मोक्ष का अनुभव कर ले यही तो सन्यस्थ भाव है,, और इस अवस्था में निराकार को पूजना सुगम है, यही तो मैं कह रहा हूँ जी।,,, जो प्लेयिंग करता रहे, मोक्ष को प्राप्त ना कर पाये, उसके लिये साकार पूजन सुगम है और वह माया मोह के जंजाल में फंसा आम मनुष्य ज्यादातर है। आप सही हैं, विषय में क्लेरिटि लाने के लिये चर्चा हुई, आपका धन्यवाद। हमारे सनातनधर्म की सकारात्मक सोच में दोनों विकल्प हैं,,, यही तो इसे महान, सर्वग्राह्य व सुगम बनाता है।”

बुजुर्ग जाते हुये रुक गये और बोले -“सत्य एक ही हो सकता है उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता।”

मैंने भी तुरत जवाब दिया -“सत्य का विकल्प नहीं होता पर उसको समझने व उसको प्रशस्त करने के मार्गों का विकल्प होने से ज्यादा से ज्यादा मनुष्य उसको प्राप्त कर सकते हैं। ,,, और यही सुगमता हमें हमारी सनातन संस्कृति देती है।”

बुजुर्ग बोले -“सतयुग तभी सत्य युग था। द्वापर में आते ही 2 फाड़ हो गए। हम स्वयं को भूले व उसे भूले। नतीजा वर्तमान परिदृश्य आप देख रहे हैं। रंग रूप जाति धर्म के जितने भेदभाव बढ़ते जा रहे हैं अशांति उतनी ही बढ़ती जा रही है।”

युवा बोल पड़ा-” क्या कर सकते हैं,,, फिलहाल हम कलयुग में हैं व इसी देश-काल की परिस्थिति में चर्चा कर रहे हैं,,, सतयुग में क्या था यह हम इतिहास को कुरेद तो सकते हैं पर कर कुछ नहीं सकते। फिलहाल जीना हमें वास्तविकता में ही पड़ेगा, और वह कलयुग ही है।”

बुजुर्ग बोले -” बेटा, कलयुग को कलह-युग ही माना गया है। कलयुग को लाने वाले भी तो हम ही हैं। आत्मा अपने संस्कारों से गिरी तभी तो कलयुग आया।”

मैं बोला पड़ा-“फिर वही बहस शुरू हो जायेगी ,,, आत्मा नहीं गिरी, और ना गिर सकती है,,, यह तो ईश्वर के खेल हैं,,, सातवाँ मनवन्तर चल रहा है,, इसका मतलब सात बार सतयुग त्रेता,, आदि युग आकर जा चुके हैं,,, सात बार और आने बाकि हैं जी,,, यह तो जीवन-चक्र है,,, कलयुग के बाद फिर सतयुग और उसके बाद फिर त्रेता, फिर द्वापर, फिर कलयुग,,, और ऐसा चलता रहेगा।”

बुजुर्ग बोले-“क्या बात कर रहे हैं, यदि आत्मा नहीं गिरी तो क्यों कोई पापी है और क्यों कोई पुण्यात्मा? क्यों कोई भगत है और कोई महात्मा?”

महिला बोल पड़ी-“इसका मतलब आत्मा कर्म करती है?”

बुजुर्ग बोले -“100 परसेंट आत्मा ही कर्म करती है परंतु माध्यम हमारी कर्म-इंद्रिय होती हैं, जिसे आप शरीर कह रहे हैं। आत्मा के कर्मानुसार ही तो शरीर फल भोगता है। यदि सब की आत्मा एक सी होती है तो सभी एक समान ना होते। अपने मूल को ना जानने पर ही इतने प्रश्न आ रहे हैं जी।”

महिला बोल पड़ी थी-“और उस आत्मा का कन्ट्रोल पोइन्ट कहाँ है,, कौन आत्मा को कन्ट्रोल कर रहा है? फिर तो अच्छे बुरे का वो संचालक ही जिम्मेदार हुआ और अगर आत्मा स्वतंत्र है, बिना किसी कन्ट्रोल के काम कर रही है तो आत्मा जिम्मेदार हुई।”

बुजुर्ग बोले -“सुगमता तो साकार में ही है। सुगमता होगी तो प्राप्ति भी पूर्ण नहीं होगी। परंतु मूर्त से अमूर्त की ओर जाने पर ही सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियां है, यह भी पक्का है।”

“सही है पर यहाँ श्रेष्ठता की बात ही नहीं है, बस आमजन की सुगमता की है, बहतर समझ की है! पता लगा सर्वश्रेष्ठ की चाह में श्रेष्ठ हाथ ना आये।” मैंने कहा -“अपनी बात को एक और उदाहरण से समझाता हूँ। मानो आपकी क्लास में आकर आपकी एक टीचर ऐसे ही बिना किसी चित्र, मानचित्र या डाइग्राम के समझाती है, और दूसरी आपको चित्र, मानचित्र या डाइग्राम बना या दिखाकर समझाती है, किस तरह से आप विषय को बहतर समझ पायेंगे?”

युवा बोला -“बिलकुल चित्र, मानचित्र या डाइग्राम की मदद से समझाने पर बहतर समझ पायेंगे। आजकल तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर थ्री-डी इफेक्ट्स से समझाया जाता है। और सही है इससे हमें समझने में बेहतरी ही होती है।”

“यही तो मैं समझा रहा था। चित्र, मानचित्र या डाइग्राम, थ्री-डी इमेज, विद इफेक्ट्स यह विषय को बहतर समझाया जा सकता है। विषय को समझना व समझाना ही तो पूजा है, इबादत है और यह साकार रूप में ही सहज हो सकती है। निराकार का पूजन तब हो सकता है जब विषय हम पूर्णतः समझ चुके हैं व जो बोला व सुना जा रहा है उसकी वही इमेज हमारे मस्तिष्क में स्वतः उभर रही है, तब निराकार पूजन-आराधन संभव है।”

“एक बात और !” मैने उठते हुये कहा -“अगर व्यक्ति को कुछ दिखाई ही ना दे, तो जिज्ञासा से रहित मैं जबरन कुछ सुनता हूँ और स्वीकार करता हूँ डर कर, परन्तु अंगीकार करने में सन्देह है।”

बुजुर्ग बोले -” यह विषय बिल्कुल अलग है और बहुत विस्तार वाला भी है। आराम से चर्चा करेंगे। फिलहाल हाथ-मुंह धोकर नाश्ते का इन्तजाम करते हैं।”

मैंने कहा -“ठीक है महात्मन्, नाश्ता करके बताता हूँ कि मूल क्या है, इसकी कथा क्या है! वैसे मेरा विषय केवल साकार और निराकार की पूजा और उसकी सुगमता था, ,, यह तो हम विषयान्तर हो गये।”

और हम सब हाथ-मुंह धोने व दैनिक क्रिया के लिये उठ गये। चद्दर समेटी और चल दिये फ्रेश होने। गाड़ी भी गति पकड़ चुकी थी।

–माथुर-चतुर्वेद श्रीविद्येश

Checkout More Stories – Visit Now

 293 total views,  3 views today

bookpanditgonline

Published by
bookpanditgonline

Recent Posts

।। धर्म ।।

धर्म का सवाल मूल रूप से व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्ध का प्रश्न है !… Read More

2 years ago

“देवशयनी-एकादशी”

आज देव-शयनी एकादशी है। मान्यता है कि इस दिन कल्याण करने वाले भगवान विष्णु चार… Read More

3 years ago

भैरव-जयंती (भैरवाष्टमी विशेष)

!! श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या: !! महाकाल-भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है।… Read More

3 years ago

अवधूत दत्तात्रेय

भारतीय - विद्या परंपरा और उपासना के इतिहास में दत्तात्रेय की महिमा व्यापक है ।… Read More

3 years ago

सृजन

हमारे पड़ौस में राजवंशी साहब रहते हैं । बेटे की सगाई हुई तो एक मंजिला… Read More

4 years ago

विषमता भरी शिक्षा (शिक्षा-नीति के प्रारूप का मंथन)

शिक्षक-दिवस पर लिखा सालों पुराना लेख व आज भी उसकी प्रासंगिकता । "विषमता भरी शिक्षा"… Read More

4 years ago

This website uses cookies.