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विषमता भरी शिक्षा (शिक्षा-नीति के प्रारूप का मंथन)

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शिक्षक-दिवस पर लिखा सालों पुराना लेख व आज भी उसकी प्रासंगिकता ।

“विषमता भरी शिक्षा”

आइये आपके समक्ष 32 वर्ष पूर्व के एक विद्यार्थी के मनोभाव प्रकट कर रहा हूँ । 11.01.1989 को 12वीं कक्षा में लिखा व पढ़ा भाषण।

“विषमता भरी शिक्षा”

आज की शिक्षा की मूल परिभाषा हम इस प्रकार दे सकते हैं- “जो साधन व तरीका हमें अच्छी नौकरी, रुपया-पैसा आदि वैभव की वस्तुएं दे सके, वही शिक्षा है। असली शिक्षा वही है जो हमें हमारे सुख-वैभव को हम से मिला सके।”

परन्तु वास्तव में क्या यही शिक्षा है ?

आज हम शिक्षा का अर्थ ज्ञान से नहीं लेते। हम केवल यही सोचते हैं कि हमें तो केवल एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाना है, भले ही हम कैसे भी पहुंचें ।

वास्तविकता तो यह है कि आज हमने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है। शिक्षा आज ऐसा व्यवसाय बन चुका है जो हमें डिग्री दे सकता है, रुपया दे सकता है, वैभव दे सकता है परन्तु ज्ञान नहीं! शिक्षा का जो मूल उद्देश्य है वह हम समझ नहीं पाते।
इसके लिए कौन जिम्मेदार है, हम, हमारे अध्यापक या फिर हमारी सरकार ?

देखा जाये तो हम तीनों ही इसके विकृत रूप के लिये जिम्मेदार हैं । अब प्रश्न उठता है कि कौन ज्यादा जिम्मेदार है और कौन कम ?

हम विद्यार्थी भी क्या करें, हम केवल उतना ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं जितना हमारे उत्तीर्ण होने में सहायक हो। हम उसकी जड़ तक नहीं पहुंचना चाहते, ऐसा क्यों? इसका उत्तर है – क्योंकि हमारे पास समय नहीं है।
जो विद्यार्थी English की Grammer नहीं जानता वह Shakespeare के नाटक कैसे समझ पायेगा ?
आज वही चुनौती हमारे सामने है। प्राइमरी कक्षाओं में हमें ठीक ढंग से व्याकरण का ज्ञान नहीं दिया जाता परन्तु हम पास हो जाते हैं और सेकेंडरी कक्षाओं में जब व्याकरण छाने लगता है तो हम घबराने लगते हैं, परन्तु फिर पास हो जाते हैं । बड़ी कक्षाओं में यह समस्या विकट रूप धारण कर लेती है। हमें बेसिक चीजें तो पता होती नहीं और हम स्टैण्डर्ड की चीजें पढ़ते व लिखते हैं । परिणाम क्या होता है -‘अनुत्तीर्ण’! इसके लिए कौन जिम्मेदार है, हम या वे अध्यापक जो हमें कभी प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ाते थे? जब हमें छोटी कक्षाओं में ही शिक्षा ठीक ढंग से नहीं मिली तो हम बड़ी कक्षाओं में कहां से ठीक हो सकेंगे ?

परन्तु यह बात तर्क या विरोध की नहीं, यह बात है सामंजस्य बिठाने की।

प्राथमिक कक्षाओं में जो हमें ठीक से पढ़ाया नहीं जाता, उसका परिणाम बड़ा हानिकारक सिद्ध होता है। हमारे अध्यापकों की लापरवाही से हम केवल पास होने का तरीका ढूंढ़ निकालते हैं परन्तु उसे समझने की शक्ति हममें नहीं होती।
आज जो कुछ छोटी कक्षाओं में होता है वह कौन नहीं जानता? हम सब इससे भली-भांति परिचित हैं ।

परन्तु यह समय उनकी चर्चा का नहीं है। हमें तो उस कारक को ढूंढ निकालना है जो इस सबके लिये जिम्मेदार है। वैसे अगर छोटी कक्षाओं में ठीक ढंग से पढ़ा व पढ़ाया जाये तो जहां तक मेरा ख्याल है बड़ी कक्षाओं में मुसीबत नहीं आती।

अगर हम potential Difference की definition पता करना चाहें तो हमें पहले Electrical Potential क्या है जानना पड़ेगा, और Electrical Potential को समझने के लिए हमें Potential जानना पड़ेगा, और Potential जानने के हमें Electric Charge जानना पड़ेगा। और Electric Charge जानने के लिए हमें Charge को समझना पड़ेगा। और Charge को समझने के लिए हमें Elementary Particles को और इसे समझने के लिए Particles या Elements को। और यह श्रंखला बढ़ती ही जायेगी । यकीनन हमें अगर Charge क्या है पता नहीं होगा तो हम Potential Difference क्या है कैसे जानेंगे?

परन्तु मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि केवल अध्यापक ही इसके लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि हमारी ही लापरवाही इसका प्रमुख कारण है । परन्तु प्राथमिक शिक्षा देने वाले वे सभी अध्यापक भी जिम्मेदार हैं जो मात्र अपने मनोरंजन के लिए विद्यार्थियों के जीवन से खेलते हैं ।

परन्तु इस विरोधाभास का यह अर्थ सर्वथा गलत होगा कि अध्यापक ही इसके लिये जिम्मेदार हैं । यह तो एक प्रश्न है कि आज की विषमता भरी शिक्षा के लिए कौन जिम्मेदार है ? और इसका सामना हमें हर मोड़ पर करना पड़ेगा ।


उपरोक्त भाव एक विद्यार्थी के बतौर थे। आज 31वर्षों से ज्यादा वक्त बीतने पर, जमाना देखने के बाद भी कई बातें प्रासंगिक लगती हैं तो कई बात और सूक्ष्म तरीके से समझ में आईं ।

यह सर्वथा सही है कि प्राइमरी शिक्षा में ही मूल शिक्षा है। उसी तरह जैसे भावी भवन की नींव। नींव अगर सही है तो भवन डिग नहीं सकता। कितने ही भूकंप आयें या तूफान, भवन मजबूती से खड़ा रहेगा।

तो क्या मात्र प्राथमिक शिक्षक ही सारी जिम्मेदारी लें ? नहीं, पर अति महत्वपूर्ण जरूर है।

आज ज्यादातर शिक्षा के स्थान प्राइवेट हैं और शिक्षा का मंदिर मुनाफे मात्र हेतु एक व्यवसायिक क्षेत्र बन चुके हैं, जहां कर्मचारी तो सस्ते चाहिए परन्तु गुणवत्ता व परिणाम बेहतरीन । आज किसी बच्चे से पूछो कि बड़े होकर क्या बनोगे तो कोई नहीं कहता कि वह शिक्षक बनेगा या बनेगी । वो अलग बात है कि बड़े होकर कोई और काम ना मिला तो शिक्षक बन जाते हैं । विवाह के बाद महिलाओं को बाहर जाना या नौकरी की मनाही हो तो भी ससुराल वालों से स्कूल की नौकरी की इजाजत तो मिल ही जाती है। कारण,,, बड़िया है बहु की भी रह जायेगी कि वो नौकरी करने बाहर जा रही है और घर भी साद लेगी। सुबह का काम, नाश्ता वगैरह भी जल्दी कर कर देगी और दोपहर को घर आकर फिर घर संभाल लेगी।,,, फिर स्कूलों में छुट्टियाँ भी खूब मिलती हैं, इतनी कि और किसी नौकरी में सोच भी नहीं सकते,, हर दूसरे दिन हमारे विविधता भरे देश में आये दिन कोई त्यौहार, कोई जयंती या पुण्यतिथि,,, इससे घर भी संभल जायेगा और बहु के बाहर जाकर नौकरी की भी रह जायेगी । ,, अब वह बहु चाहे पढ़ाने का हुनर रखती भी है कि नहीं, कौन जाने और कौन देखे। घर-घर गली-गली में खुली ये व्यवसायिक दुकानें, शोरुम, माॅल, इनकी गुणवत्ता कौन जांचे? फिर पड़ौस में रह रही ज्यादातर महिलाएं जिनकी उच्चाकांक्षा लगभग खत्म हो चुकी होती हैं, जिनके ज्यादातर एक ही भाव हैं कि जितना मिलता है उतना ही तो करेंगे। प्राथमिक शिक्षा जो सर्वोत्तम होनी चाहिए वो धराशायी है,,,पूर्णतः व्यापार बन चुकी है।

कई रोचक किस्से सामने आते हैं कि टीचरों को जनवरी की स्पेलिंग नहीं आती वो अंग्रेजी का ग्रामर व लिट्रेचर पढ़ा रहे हैं, आदि आदि अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने आते रहते हैं जिससे भविष्य से खिलवाड़ होता दिखता है ।

अब पता चलता है कि शिक्षा-नीति व सरकार की सोच कितनी लचर रही है।

यह सही है कि हमारे देश के युवा विश्व के हर क्षेत्र में बड़ा नाम कर रहे हैं, परन्तु सही शिक्षा-नीति, सरकारों की मंशा हमारे युवाओं को और बेहतर तरीक़े से समाज हित में योगदान देने के लिए प्रेरित कर सकती हैं ।

और फिर केवल विद्यार्थियों व शिक्षकों की ही बात क्यों हो ? क्या हम अभिभावक भी शिक्षा के इस अराजक माहौल के लिये जिम्मेदार नहीं ? मेरे ख्याल मे सबसे ज्यादा । हम शिक्षा की गुणवत्ता की जगह वहां की सुविधाएं देखते हैं, ,, क्लास में पढ़ाई से ज्यादा हमें यह फिक्र होती है कि क्लास का ए सी सही कूलिंग कर रहा था कि नहीं,,, स्कूल-बस की सीटें सही है कि नहीं,,, बिल्डिंग सही है कि नहीं,,, लाॅबी कैसी है ,,, किताबें किसी बढ़िया अंग्रेजी पब्लिकेशन्स की हैं कि नहीं,,, ऊंची फीस देने को हम समाज में अपना स्टेटस-सिंबल बना चुके हैं । ,,, बच्चे भी ऊंची-ऊंची स्कूल की दुकानों की तरफ आकृष्ट हो रहे हैं और स्टेटस सिंबल बतौर लेने लगे हैं,, स्कूल मे पढ़ाई कैसी है इससे सरोकार कम व ऊंचे नाम को अपना मान मानने लगे हैं, गौरव का अनुभव अब उनके अध्यापक नहीं वरन फाइव स्टार लंच-मेनू लेने लगे हैं । इन सब में पढ़ाई गुम हो चुकी है,, शिक्षकों का कैडर गौण हो चुका है, न्यून हो चुकी है। अध्यापक बच्चों को डांट नहीं सकते ना पढ़ने पर धमका नहीं सकते, मारना तो बहुत दूर की बात है,,तो अध्यापक भी बस बिना भावनात्मक जुड़े, हमारे बच्चों को एक क्लास से दूसरी क्लास में धक्का दे रहे हैं ।

विडंबना यह भी है कि सरकारें भी इस विषय पर कोई विशेष सोच नहीं रखती, संजीदा नहीं दिखती। हाल आई नई शिक्षानीति में कई बदलाव प्रशंसनीय हैं परन्तु अभी यह बहुत बड़ी लड़ाई है। एक तरफ नैतिकता का पाठ अवश्यंभावी है तो जीवन-यापन हेतु व्यवसाय हेतु शिक्षा मददगार हो, ऐसा प्रयास होना चाहिये । विडंबना यह है कि आजतक हम सोचते हैं कि हमें भी पढ़ाई गई बहुत सी बातों का आज दिन तक कोई लेनादेना नहीं है – तो फिर हमें वह क्यों पढ़ाई गई,, हमारे उन बातों को ना जानने पर हमें क्यों फ़ेल किया गया ? फ़ेल हुए, फिर जैसे तैसे पढ़े पर जिन्दगी के लंबे सफर में वो काम कभी ना आये।। क्या था वो, क्या है यह ???

वाकई आज भी वह 11.01.1989 का उठाया विषय- “विषमता भरी शिक्षा ” प्रासंगिक है, विचारणीय है। गंभीरता से इस विषय पर सोचने की, निश्चय करने की, क्रियान्वयन करने की पुरजोर आवश्यकता है – हमें, तुम्हें, अभिभावकों को, अध्यापकों को, विद्यार्थियों को, सरकारों को, सामाजिक संस्थाओं को,,, हर किसी को,,, भविष्यहित में, समाजहित में, देशहित में । 🙏

– श्रीविद्येश चतुर्वेदी

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