भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो,
भूयादनन्त महताममलाशयानाम् ।
येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं,
नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः॥।
श्रीमद्भा० ४।९।११
‘हे अनन्त परमात्मन् ! मुझे आप उन विशुद्ध-हृदय महात्मा भक्तों का संग प्रदान कीजिये,जिनका कि आपमें अविच्छिन्न-भक्तिभाव है,उनके संग मैं भी आपके गुणों तथा लीलाओं की कथा-सुधा का पान करके उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही विविध-भाँति के दुखों से पूर्ण,भयंकर-संसार-सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा ।’
अपने जान मैं बहुत करी ।
कौंन भांति हरि कृपा तुम्हारी,
सो स्वामी समुझी न परी ।।
दूरि गयौ दरसन के तांई,
व्यापक,प्रभुता सब बिसरी ।
मनसा,वाचा,कर्म अगोचर,
सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
गुन बिनु गुनी,सुरूप रूप बिनु,
नाम बिना श्रीस्याम हरी ।
कृपासिंधु ! अपराध अपरिमित,
छमहु ‘सूर’ ते सब बिगरी ।।
जयश्रीकृष्ण ! जयति पद्मबन्धो:सुता !!
लेख – द्वारा- आचार्य श्री बसंत जी चतुर्वेदी
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