!! श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या: !!

महाकाल-भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत: धर्ममय आचरण करें। भैरव-अवतार से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।

श्रीभैरवनाथ साक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है।

तन्त्रालोक की विवेक टीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है-
बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव:!!

अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है।

शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथ में कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।

भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-व में ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-
भैरव: सर्वशक्तिभरित:।

शैवों में कापालिक-सम्प्रदाय के प्रधान देवता ‘भैरव’ ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिव ही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है।

रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्त दस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है।

दुर्गासप्तशती के प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है।

अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी ‘काल-भैरव’ तथा ‘बटुक-भैरव’ की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल काल-भैरव की कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निर्विघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके काल-भैरवकी बड़ी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी (उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।

धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी में हुआ था, अत: यह तिथि ‘कालभैरवाष्टमी’ के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को ‘कालाष्टमी’ के नाम से प्रकाशित किया जाता है।

शनि के प्रकोप का शमन-भैरव की आराधना से होता है। भैरवनाथ के व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीड़ा का निवारण होगा। काल-भैरव की अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमी से प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्त प्रत्येक कालाष्टमी को व्रत रखकर भैरवनाथ की उपासना करें।

कालाष्टमी में दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकाल में भैरवनाथ की पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है।

साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।

साम्बसदाशिव की अष्टमूर्तियों में रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथ भी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजी कलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।

।।जय श्रीजी की।।

साभार – श्री आनंद जी चतुर्वेदी, बाबा-महाराज

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