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हमसफ़र | Companion

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रेल पटरी पर जिन्दगी की तरह सरपट दौड़ रही थी और हम अपनी-अपनी सीट पर लेट रहे थे। अंधेरा घिर चुका था और हलकी बारिश पड़ रही थी। बंद खिड़कियों से, छनती हुई ठंडी हवा अंदर आ रही थी। हलकी सिरहन से मौसम सुहाना हो चला था।
रेल धीरे होने लगी तो मैंने बुजुर्ग से पूछा-“महात्मन्! लगता है, कोई स्टेशन आ रहा है, चाय पियेंगे ?”
“अरे भाईसाहब! चाय तो मैं भी पियुंगा!” वो बोला ।
“कौन सी चाय, चरित्रहीन चाय या चरित्रवान चाय ?” मैंने मुस्कुरा के पूछा ।
“भला चाय भी चरित्रहीन या चरित्रवान होती है ?” – बुजुर्ग बोले। उनके चहरे पर अजब सी उत्सुकता छा गई थी।
मैं बोला- “हाँ ! जो चाय चीनी-मिट्टी के कप में या काँच के गिलास में आती है वो चरित्रहीन होती है,,,, हर बार धुल-पूछ कर उसी सांचे में, नई साज-सज्जा में आकर हर बार नए-नए प्रेमी के होठों को चूमती है, ना तृप्त होती है ना कर पाती है ! ,,,,पर जो चाय कुल्हड़ में पी जाती है, वह चरित्रवान होती है! वह तो बस पंचतत्वों से बनी मिट्टी से तैयार होती है और किसी एक के होठों से ही लगकर, पीने वाले को तृप्त कर, अपने नश्वर शरीर का त्याग कर देती है, फिर नहीं लगती किसी और के होठों पर। और फिर नया जन्म लेती है,,,,, फिर अग्नि में तपती है,,,, फिर नए प्रेमी के होठों से लगने के लिए, तृप्त करने के लिए।”
“अरे भाईसाहब, क्या बात कही है। अब तो चरित्रवान चाय ही पियेंगे।”
“हा-हा-हा” मैं हंसा और बोला “यह भाव कुमार विश्वास की कलम से निकले हैं, मैंने कहीं पढ़ें थे। परन्तु बात तो सही है ना ?”
“बिलकुल भाईसाहब!” वो बोला “परन्तु ,,,,,अगर कुल्हड़ ही मलीन हुआ, उसमें ही छेद हो या फूटा हो तो ?” वो बोला
“तो कुल्हड़ को समय रहते बदल लें।” मैं अपनी बात को सटका कर दरवाजे की तरफ चल दिया।

रेल रुक चुकी थी। हम दोनों स्टेशन पर उतरे और ढूढ़ने लगे चरित्रवान चाय को।
भला हो कच्ची मिट्टी को तराश कर कुल्हड़ बनाने वाले कुम्हार का जो ईश्वर की ही तरह पंचतत्व को तपाकर खूबसूरत रूप देता है!
बड़ी मशक्कत से, काफी ढूंढ़ने पर हमें चरित्रवान चाय मिली,,, उसी तरह जैसे बड़ी मशक्कत से, काफी ढूंढ़ने पर चरित्रवान साथी मिलता है।
हमने तीन कुल्हड़ भर चाय ली और अपने डब्बे की तरफ दौड़े।
बुजुर्गवार को खिड़की से ही उनकी चाय दे, हम दोनों दरवाजे के पास खड़े होकर कुल्हड़ की चाय की चुस्की लेने लगे।
ऊपर से हल्की बारिश, ठंडी-ठंडी हवा, सुहाना मौसम और कुल्हड़ में भरी गरमागरम चाय,,, चरित्रवान साथी साथ में। मजा आ रहा था!

चाय खत्म कर पंचतत्व से बने कुल्हड़ को पंचतत्व में मिलाकर हम अपने डब्बे में चढ़े ।
“महाशय, कैसी लगी चाय ?” मैंने बुजुर्ग से पूछा ।
“अरे साहब! मजा आ गया!”
“मजा तो आना ही था, चाय जो चरित्रवान थी।” मैं बोला
“अब तो कुल्हड़ की चाय से इश्क़ हो गया है! ,,,,,,चरित्रवान साथी मिले तो मोहब्बत कैसे ना हो!” बुजुर्ग भी कहकर हंसने लगे।

देखा तो एक महिला हमारी सीट पर बैठी दिखी।
“आप यहाँ से चढ़ी हैं?”
“जी !”
“कहाँ तक जायेंगी ?” वो बोला
“अरे दो स्टेशन बाद इनका स्टेशन आयेगा, मुझसे पूछकर ही बैठी हैं। इनका रिजर्वेशन नहीं हो पाया। मैंने ही कहा, परेशान ना हों, यहां बैठ जायें । सज्जन व्यक्ति की सीट है, उनको आपका हमसफर बनने में कोई परेशानी नहीं होगी।,,, क्यों सही किया ना?” बुजुर्ग बोले।
“अरे साहब, आपने कह दिया, बस हो गये हम हमसफ़र!” मैं बोला ।
“धन्यवाद जी!” महिला बोली।
“आपका स्टेशन आते-आते तो देर रात हो जायेगी?”
“जी!” वो सकुचा कर बोली।
“बुरा ना मानें तो एक बात पूछूं?”
“जी, पूछिये!”
“इतनी देर रात, अकेले, बिना रिजर्वेशन के सफर, फिर मंजिल भी देर रात ही आयेगी,,, आपको दिक्कत नहीं होगी?”
“दिक्कत कैसी ? ईश्वर पर भरोसा है, कुछ गलत क्यों होगा।”
“फिर भी, अंधेरी रात, अनजान सफर, अनजाने हमसफर, आप अकेली, डर नहीं लगता?” मैंने पूछा ।
“डर भी लगे तो क्या, सफर तो तय करना है ना?,,,फिर मैं अकेली कहाँ, आप सब तो हैं ।”
“हां, वो तो है।”
“आप लोग कहाँ तक जायेंगे।” महिला ने पूछा ।
“जी हमारा स्टेशन तो कल शाम को आयेगा ।” वो बोला ।
“आपको लेटना हो तो बोल दीजियेगा, मैं कहीं और चली जाऊंगी।” वो बोली।
“आप इत्मीनान से बैठिये, कोई परेशानी नहीं। और अगर परेशानी हुई तो बोल देंगे।”
“जी, सफर में यह बहुत अहम है कि हम बेझिझक अपनी परेशानी सामने वाले को बोलें ।”
“बोलें भी और उस परेशानी का हल भी साथ में ढूंढ़ लें, समझदारी इसी में है। वरना केवल परेशानी ही बोलते रहोगे तो सफर का मज़ा कब लोगे।” बुजुर्ग अपने अनुभव से बोले। “सफर में हमसफर से समझौता करने में भलाई है।”
“एक बात बताइए साहब, मैं समझौता क्यों करूँ किसी से ? मेरी अपनी जिंदगी है, मेरा अपना विचार है, मैं क्यों सुनूं किसी की?” वो बोला ।
“मत करो बेटा, कोई दबाव नहीं है, परन्तु फिर अकेले रहो, अलग एकल वाहन में चलो, दुःख-दर्द अकेले सहो। साथ में, रेल जो समाज की तरह हजारों को साथ लेकर चलती है, उसमें चलने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं ” बुजुर्ग बोले ।
“ऐसा कैसे, मैं तो ना सहूंगा ना समझौता करूँ, और क्यों करूँ । कल मेरी मंजिल आयेगी ही, रेल तो चलेगी ही, फिर मुझे किसी के साथ से क्या लेना-देना और क्या लाभ?” वो बोला ।
“भाई, फिर तो बुजुर्गवार सही बोल रहे हैं, अकेले रहो, अकेले चलो, अकेले जियो, अकेले मरो। परन्तु एक बात समझ लीजिये, मानव को सामाजिक-प्राणी बनने के लिए साथ में रहना ही होगा, साथ चलना ही होगा, हमसफर चाहिए ही होगा और ग़र साथ रहने के लिए, साथ चलने के लिये कहीं ना कहीं समझौता करना ही पड़ेगा,,, समर्पण भाव लाना ही होगा। “
साथ बैठी महिला हमारी बातों मे रुचि लेते हुए बोली -“एक बात बताइए कि हमेशा औरत ही क्यों सहे, औरत ही क्यों समझौता करे?”
“एक बात बोलूं ” मैं बोला “जब हमसफर हो ही गये तो कौन औरत और कौन मर्द? सफर में हमसफर बन कर कोई औरत और कोई मर्द बनकर धौंस नहीं रख सकता। हमसफर गाड़ी के दो पहिये होते हैं, जो आपस में अटूट बंधन में होते हैं और दोनों में ही बराबर हवा भरी होनी चाहिए । हवा अगर दोनों पहियों में बराबर नहीं, तो जीवन की गाड़ी सीधी नहीं चल सकती, डगमगाएगी। यह हवा, यह बू, अहम की, मर्दानगी की, मायके की, कोई भी तरह की क्यों ना हो और किसी भी पक्षकार में हो, सामाजिक बंधन में – पारिवारिक बंधन में बंध कर रहने के लिए कहीं ना कहीं हानिकारक होगी। हमारे यहाँ इसलिये अर्धनारीश्वर की अवधारणा है। जीवन रूपी शिव, चेतना रूपी शिवा के साथ एकरूप है।”
“परन्तु समाज में महिलाओं को ज्यादा सहना पड़ता है, ज्यादा समझौता करना पड़ता है, ,,, यह हमारे समाज की घिनौनी सच्चाई है।” वह बोली ।
“इसको तराजू पर तौलना तो बड़ा मुश्किल है, किसको ज्यादा किसको कम। समझौते से रिश्ते चल जाते हैं वरन खटपट रहती है।” बुजुर्ग बोले ।
“रिश्ते चाहे पति-पत्नी के हों, दोस्तों के या फिर मालिक-कर्मचारी के, भाई-भाई के हों या फिर कोई भी। रिश्ते समझौते के ऊपर ही चलते हैं, चाहे ज्यादा-चाहे कम! अहम बात यह है कि बिना समर्पण के किया हुआ समझौता रिश्तों को बोझिल कर देता है। ,,,,सफर का मज़ा लेना है तो थोड़ा समझौता आप करिये और थोड़ा समझौता हम करेंगे, परन्तु समर्पित होकर, खुले मन से, दबाव में नहीं । ,,,, इसी सफर को ही लीजिए, आप और हम, हमसफर हैं अभी, थोड़ा आप समझौता करें थोड़ा हम, और सफर बढ़िया कट जायेगा। नहीं तो जीना तो तब तक है जब तक सांस चल रही है, जीवन तो चल रहा है रेल की तरह, पर यह सफर, यह जीवन, जीवंत नहीं होगा, जीवन में आनन्द नहीं होगा।”

मैं बात को गंभीरता की तरफ ढकेल चुका था। और फिर क्यूँकर गंभीरता ना लाई जाए, बात रिश्तों की होने लगी थी, रिश्तों में जीवंतता ढूंढ़ी जा रही थी, हजारों तरह के रिश्ते हमारे मानव होने का प्रथम लक्षण हैं। मूलतः हम सब मानव हैं तो पशु ही, सांस लेते करोड़ों प्रकार के प्राणियों में से एक प्राणी का एक रूप ही। यह बने-बुने रिश्ते ही तो हमें सामाजिक-प्राणी बनाते हैं, पशु से मानव बनाते हैं।

“आज के दिन को ही लें, हमारे यहाँ वट-सावित्री व्रत होता है। कहते हैं, सावित्री तप करके अपने सत्यवान को यमराज के पंजे से छुड़ा लाई थी।,,,,, फिर पूरब की छठ पूजा हो या उत्तर भारत का करवा-चौथ,,,, संतान के लिए किया गया अहोई-अष्टमी या बगला-चौथ व्रत,,, भाई-बहन का रक्षाबंधन और भाई-दूज,,,,, समर्पित-भाव रिश्तों की डोर को मजबूत करते हैं, प्रतिष्ठित करते हैं ।” मैं बोला ।
“अगर भाव समर्पण का हो तो समझौता समझौता जैसा नहीं लगता। रिश्ता कोई भी हो, एक दूसरे के प्रति समर्पित भाव, हमारे समाज की मूल अवधारणा में है, सहेज कर साथ चलने में है।” बुजुर्ग बोले “खुले मन से रिश्तों में समर्पित भाव रखें, तो हमसफर रामायण बना देते हैं नहीं तो बोझिल रिश्तों में बंधे हमसफर महाभारत करा देते हैं।”

– द्वारा श्रीविद्येश चतुर्वेदी

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  • बहुत अच्छा विचारणीय प्रसंग है,,,, इस पर और गहन चिंतन आजकल के परिपेक्ष्य में अनिवार्य है,,

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