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श्रीकृष्ण (प्रथम लेख)

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(जीवन-पर्यंत संघर्ष – जन्मजात विद्रोही)

श्रीकृष्ण जन्मजात विद्रोही थे ।
मगध का राजा जरासंध निरंकुश था। उसने अनेक राजाओं को बंदी बना कर राज्यविस्तार किया था । हजारों कन्याओं का अपहरण किया था।

मथुरा में गणराज्य था >अन्धक,वृष्णि,भोजक,यदु गण थे। गणपति उग्रसेन था।
सचिव यादव वसुदेव था।
इस गण-शक्ति से जरासन्ध डरता भी था।
लेकिन वह अपने सैन्य-दल के साथ टोह लेने को मथुरा के पास यमुना की ओर छावनी बना कर ठहरा हुआ था।
वहां एक घटना यह घटी कि उसका एक हाथी सांकल तुड़ा कर भाग गया ,सैनिकों की पकड़ में नहीं आया।
यह दृश्य अपने अखाड़े पर खड़ा युवराज कंस देख रहा था।
वह अखाडे से कूदा और उसने हाथी को सूंड़ से पकड़ कर बैठा लिया।

बस, मथुरा को जरासन्ध की नजर लग गयी। उसने आगे की सोची और अपनी दोनों बेटी अस्ति-प्राप्ति का विवाह कंस से कर दिया ।

मागध जरासंध ने अस्ति-प्राप्ति दे कर के मथुरा का शासन -सूत्र अप्रत्यक्ष-रूप से सम्हाल लिया था ।

जरासन्ध के आदेश से पहले तो उग्रसेन को हटाया गया, फिर वसुदेव को हटाने की चाल चली।
वसुदेव को कैद करवाया ।

मथुरा के चारों ओर या तो गोपों के कबीले घूमते थे या मांसाहारी वन्य- जातियां थीं,जो गोपों से शत्रुता का भाव पाले हुए थीं।
गोप सम्पन्न थे और सभ्यता की अग्रिम सीढी पर आ चुके थे।
इसलिये वसुदेव गोपों के स्वाभाविक मित्र थे।
जबकि मांसाहारी असुर- जातियां जरासन्ध के साथ थीं।

कंस निरंकुश-साम्राज्यवाद की कठपुतली की तरह था।

गोपोंके प्रमुख नंदराय ने अपनी बेटी का बलिदान करके भी कृष्ण को अपने ब्रज में छिपा लिया।

आतंक-अत्याचार बढता गया। आतंक-अत्याचार के खिलाफ आग भी सुलग रही थी।
गोपों की शक्ति संगठित थी।
वसुदेव का बालक उन्हीं की छाया में बडा हो रहा था।

षड्यन्त्र तो बहुत हुए किंतु हर-बार कंस का दाव खाली जाता।
अन्त में अक्रूर को भेजा ,वे चाचा थे।
कृष्ण-बलराम आये और सुलगती आग में घी डाल कर कंस को अकेला कर के मार दिया।
कंसा की रानी विलाप करें-
हाय-हाय, छाछ के पिबैयन ने छत्रपती मारौ है।

कंस के शासन के विरुद्ध मथुरा ही नहीं उबल रहा था, यह पूरे मध्यदेश में गूंजने वाला विद्रोह और धधकने वाली ज्वाला थी और इसका कारण कंस का श्वसुर जरासन्ध था।

ये ही कृष्ण विद्रोह के नायक बने और पांडवों से मित्रता कर के जरासंध को मारा था ।
यही कृष्ण महाभारत के महानायक थे ।
कृष्ण ने जीवन- पर्यंत संघर्ष किया |

– सौजन्य से डा0 श्री राजेन्द्र रंजन जी चतुर्वेदी

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