आप उसे कल्पना कहते हैं, तब उसका अर्थ कुछ और हो जाता है । लोकजीवन में विद्यमान है, उसे तो कल्पना नहीं कहा जा सकता । वह तो वास्तविकता बन गया न ! यह बात अलग है कि संसार में जितने सांस्कृतिक समूह हैं, उतनी ही ईश्वर की अवधारणा हैं ।
जिस दिन ईश्वर की परिभाषा पूरी हो जायेगी, उसदिन ईश्वर ईश्वर नहीं रह जायेगा, परिभाषा करनेवाला ही ईश्वर हो जायेगा ।
शब्द कहां हैं, जो उसे बांध सकें ? शब्द की बात होती तो ब्रह्मा बेचारा नेति क्यों कहता?
मनुष्य की विवशता और मनुष्य की शक्ति दोनों ने मिल कर ईश्वर को खोजा है।
वास्तव में ईश्वर की यह खोज जीवन की खोज है, सुख की खोज है, आनन्द-मंगल की खोज है, शक्ति की खोज है, सत्य की खोज है, पूर्णत्व की खोज है, अंतर्तम की खोज है, मनुष्यता की खोज है, स्वयं अपनी खोज है।
ईश्वर की अवधारणा समष्टिगत भी है और व्यक्तिनिष्ठ भी होती है,हर आदमी अपनी तरह से वंदना करता है। अपनी तरह से परिभाषा करता है, ईश्वर मेरा है, ऐसी भावना भी करता है। जरूरी नहीं कि वह किसी किताब की परिभाषा को लेकर चले।
ईश्वर मनुष्य की गहनतम अनुभूति है।
वेद ईश्वर की वाणी इसलिये है कि लोक ने उसे प्रतिष्ठित किया है । बाइबिल, कुरान, त्रिपिटक, अवेस्ता, गुरुग्रंथसाहब अपने-अपने लोक-समुदाय के द्वारा प्रतिष्ठित ईश्वर-वाणी हैं।
ईश्वर की अवधारणा को लेकर बुद्धिजीवी-लोगों की बहस हम नित्य ही देखते हैं, पर मुश्किल यह है कि वे अपने को लोक से भिन्न और ऊंचा मान लेते हैं और सामान्यजन को मूर्ख !
वैज्ञानिक-समाजवाद कहें या जनवाद कह लें, यदि उस पुस्तक में यह लिखा है कि निर्बल के साथ रहो -सहो, उसके दुख को अपना दुख मानो, उसके पक्ष में खङे हो जाओ, उसको इतनी ताकत दो कि वह न्याय पा सके तब तो ठीक है, और, यदि आप अपने अहंकार में धर्म, ईश्वर और आस्था को ही अपना निशाना बना रहे हैं, तो स्पष्ट है कि आपके पास लोकजीवन को देने के लिये कुछ भी नहीं है, निश्चित ही धर्माडंबर, चमत्कारवाद , जङता और भेङचाल का समर्थन नहीं किया जा सकता, महात्मागान्धी और भारत की विस्तृत सन्त-परंपरा ने इनका निषेध भी किया था ।
परन्तु, आप अपनी सनक में उस गरीब का भरोसा या तिनके का सहारा भी छीन लेना चाहते हैं !
ईश्वर की कोई भी परिभाषा अन्तिम नहीं हो सकती ।
“सात समुद की मसि करूं,लेखनि सब बन- राय।
सब धरती कागद करूं,तव गुन लिखा न जाय।”
[कबीर]
सात-समुद्र में स्याही घोलूं, सारी महावृक्षों की कलम बनाऊं, सारी धरती पर तेरे गुणों का बखान करूं, तो भी तेरे गुणों को नहीं लिखा जा सकेगा।
असित गिरि समं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे, सुरतरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी, लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।
वेदशास्त्र उसे जान चुके होते तो भला नेति क्यों कहते? वह कहने की बात होती तो ब्रह्मा कब का कह चुका होता ! अवाङ्मनसगोचर या गिराज्ञानगोsतीत क्यों कहा जाता ? अव्यक्त क्यों कहा जाता?
वह भाव-रूप न होता तो तुलसी या दूसरे मनीषी उसे भावगम्य क्यों कहते?
भाव ही साधन है और भाव ही साध्य है!
जीवन में भाव की कितनी सशक्त भूमिका होती है ? आप उसे मनुष्य का विश्वास कहें, या कुछ और ! मनुष्य अपने साथ ईश्वर की अवधारणा को अपने साथ लेकर चलता है ! जीवन में कितनी बार याद कर लेता है ? सुख-दुख, भय-संकट, रोग-शोक, जय-पराजय, आंधी-तूफान, पीडा-संताप, जन्म-मरण , कितने सन्दर्भ हैं!
– डा0 श्री राजेन्द्र रंजन जी चतुर्वेदी
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