धर्म-कर्म – भाग- 2

हम दोनों साइड-लोअर सीट पर बैठे बात कर रहे थे । अब गाड़ी स्टेशन पर रूकने लगी थी । वो पानी की बोतल लेने उतरा । स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही हमारे कोच में एक बुजुर्ग चढ़े । हाथ में एक सूटकेस और एक थैला । सूटकेस सीट के नीचे घुसाते हुए व थैला सीट के ऊपर रखते हुये बोले -“मेरी सीट पर आप बैठे हुए हैं। बुरा ना मानें तो आप अपनी सीट पर जायें। थक गया हूँ,,,, आराम करना चाहता हूँ ।”
“जी, आइये!” – यह कह मैं सामने जा बैठा। तब तक पानी की बोतल ले वो भी आ गया ।

मैंने बुजुर्ग से पूछा -“महाशय! आपको बैठाने क्या आपका बेटा आया था ?”
“नहीं जी, जमाई था। बेटी के ससुराल में शादी थी। नेगचार देने आया था। …. क्या-क्या होने लगा है अब शादियों में?” -अपना चादर बिछाते हुए बुजुर्ग बोला “अब देखो, साठ लाख की शादी की थी उन्होंने…, कितना खर्च, कितना अपव्यय, हजारों की भीड़ और कोई किसी को पूछता नहीं,,,, क्या जमाना आ गया है ,,, फिर उसी हिसाब से हमें भी ,,,,,,,,।” कहते-कहते बुजुर्ग की जुबान लड़खड़ा गई। और वो अपना चादर बिछा कर लेट गये ।

“मेरे अनुसार शादी-विवाह-बारात में 25-30 लोगों से ज्यादा नहीं होने चाहिए” लेटे-लेटे बुजुर्ग बोला ।

“इससे तो बेचारे पैसे वाले माता पिता की इज्जत पर बट्टा लग जाएगा।” उसने कटाक्ष किया ।

“हकीकत में हमें दिखावे से बचना चाहिए” मैंने कहा ।

“शादी में पैसा खर्च करना मजबूरी हो सकती है, पर जनेऊ और जौनार में पैसा खर्च करना कौन सी बुद्धिमत्ता है?”

“ये मजबूरी ही खत्म होनी चाहिए”

“क्या वाकई कोई किसी को मजबूर कर सकता है?”

“हां !” मैंने असहज होकर कहा

“समाज में निंदा की वजह से लोगों को कई बार विशेषकर कर्ज लेकर भी दिखावा करना पड़ता है।”

“अब ये कहने की बात रह गई है,, जिसके मन जो आता है वो करता है,, कोई जरूरी नहीं समाज की परंपरा मानने की” – बुजुर्ग ने फुसफुसाया ।

“सही है, जिसके मन में जो आता है वो करता है पर प्रतिष्ठा का प्रश्न मजबूरी पैदा करता है जो कि दबाव डालता है कर्ज लेकर भी दिखावा करने का !” – मैं बोला

“जो कर्ज लेकर प्रतिष्ठा बनाता है मेरी नजर में वह मूर्ख है”

“मूर्ख कहना सही नहीं,,, मजबूरी चाहे किसी भी प्रकार पैदा हो,गलत करवाती है ,,,”

“क्योंकि हम सब कुछ समाज से लेते हैं, इस कारण हमारा फर्ज भी बनता है कि हम समय-समय पर समाज को कुछ ना कुछ किसी तरीके से लौटाते रहें!” – बुजुर्ग फिर मुंह बनाके बोला “शादी-ब्याह की छोड़ो, किसी के मरण पर दस दिन नित्य नयी रसोई में माल ? दसवां, ग्यारहवीं फिर तेरहवीं फिर मासी, अछूता, फिर बर्षी ,,,,, क्या कुछ छूट सकता है भला ?” अब बुजुर्ग खिन्न मन से बातचीत में शामिल हो चुके थे।

“केवल यही विषय नहीं, अछूता इत्यादि तो श्रद्धा का विषय है ,,,,परन्तु बाकि सुख वाले काम इससे कहीं ज्यादा मजबूरी पैदा करते हैं”

“भाई साहब ! ठीक है ! आप सही कह रहे हैं कि मूर्ख कहना सही नहीं है, लेकिन फिर भी मजबूर होकर केवल और केवल दिखावे के लिए कर्ज करना, इसे मैं ठीक नहीं मानता !”

“कर्ज लेकर या ना लेकर किये गये फिजूल खर्च में क्या फर्क है?,,,,, सामाजिक दबाव परेशानी का कारण है, इसी का नाम तो मजबूरी है ,,,” – मैं अब सचेत हो चर्चा को दिशा देने लगा था

“अगर इसी का नाम मजबूरी है तो फिर यह मजबूरी कहीं ना कहीं ठीक भी है” – चर्चा अब गहरा रही थी “दूसरे कई प्रकार की परंपराएं समाज से खत्म भी हो रही है,,जैसे,,, जनेऊ उपरांत घूराडेल ! ,,,, और फिर भी खर्च चौगुना हो गया ,,,!”

“खर्च की तो अब आप बात ना करो !,,,,, आज किसी भी समाज में देखो, रिसेप्शंस के क्या हाल हैं, दो चार करोड़ रुपए के रिसेप्शन होते हैं,,,,, पर अपने यहां फिर भी बहुत कुछ सही है !” – बुजुर्ग ठंडी आह भरकर बोला ।

“खर्चे तो हर चीज में ही बढ़े है भाई साहब ! ,,घटा कहां है ?”

“घूराडेल एक अच्छी परंपरा है,,,, परन्तु यह विषय अलग है” – बुजुर्ग बोला “घूराडेल ना होने के बाद भी खर्च में कमी आई क्या?”

“वही तो यक्ष प्रश्न है ,,,!” – मैं मुस्कुराया

“समयानुसार भाई साहब आमदनी भी लोगों की बढ़ी है !”

“तो,,,? ,,,,,करोड़ों का खर्च केवल एक रात के जश्न का ,,,,? क्या है यह ?”

“जब किसी पर तादाद से ज्यादा पैसा आ जाएगा तो कहीं तो उसे खर्च करेगा !” – बुजुर्ग फिर बुदबुदाया

“सही है ,,, पर और बेहतर तरीक़े से समाज हित में यह राशि खर्च की जा सकती है ,, हमारे कुछ भी खर्च करने से,,,,चाहे पैसा या समय,,, समाज को क्या मिला, वह महत्वपूर्ण है !”

“आपकी बात बिल्कुल सही है,पर इस कांटे भरे ताज को अपने सर पर बांधे कौन ?”

“हर मंच पर चर्चा और समाज की सोच महत्वपूर्ण होने लगे तो ही मुमकिन है !”

“चर्चा सब करते हैं करता कोई नहीं,,” – बुजुर्ग अपना कंबल ऊपर खींचते हुए बोला

“चर्चा करना भी प्रतिरोध है। और फिर कोई भी मजबूरी कभी भी किसी भी लिहाज से ठीक नहीं हो सकती !” मैंने भी अपना गला तर कर कहा “इसी का नाम तो दबाव है! ,,, और यही तो मजबूरी हुई!”

“कुछ मजबूरियां सकारात्मक भी हो सकती हैं यदि व्यक्ति ईमानदारी से सोचे तब,,,, “

“मजबूरी कभी भी किसी भी लिहाज से सकारात्मक नहीं हो सकती” – मैंने थोड़े आवेश में कहा “यह तो आजकल चल रहा है,,, इतना तो बनता है,,, यह तो आपकी हैसियत के अनुरूप है,,,, यही तो दबाव है जो मजबूरी पैदा करता है ।”

“यहां चलने की तो कोई गिनती ही नहीं है भाई साहब क्योंकि यहां कोई एक फिक्स क्राइटेरिया नहीं है।”

“फिक्स होना भी नहीं चाहिये,,, फिक्स होना ही तो दबाव पैदा करता है और इंसान को मजबूर!”

“अब देखो भाईसाहब! बहुत से लोग दूसरों को मजबूरी में भी सम्मान देते हैं कभी-कभी मजबूरी में भी दान देते हैं,,, तो क्या यह मजबूरी में किया सम्मान या दान भी गलत है ?”

“बेशक,,,,यह भी 100% गलत है” अब मैं सख्त हो रहा था “मजबूरी में दिया या पाया सम्मान या दान भी गलत है ! यही रूढ़ि है, कुरीति है!”

“जिसे आप रूढ़ि कह रहे हैं उसे लोग श्रद्धा का नाम देते हैं । और फिर यह तो अपना-अपना नजरिया है भाई साहब !,,,, मैं मानता हूं कोई किसी को भले ही मजबूरी में ही आकर सम्मान करता हो, फिर भी वह उसके किए गए अपमान से कहीं अच्छा है।”

“मजबूरी में किया सम्मान अगर ना किया जाए तो वो अपमान कैसे हुआ,,, ? अपमान करना तो निन्दनीय होता है ,,,,,, मेरे मन में श्रद्धा ही नहीं तो दिखावे के सम्मान से क्या?,,,, दोनों पक्ष समझते हैं,, तीसरा जो देख रहा हो वो भी समझ जाता है ,, फिर नाटक क्यों?”

“कभी-कभी सम्मान ना करना भी अपमान जैसा ही दिखाई देता है,,, जैसे कि किसी गुरुजन को प्रणाम न करना !”

“गुरुजन के सम्मान में कैसी मजबूरी,,, यह तो वांछित है”

“पर कोई यदि फिर भी ना करें तो क्या कहेंगे ?”

“तो निन्दनीय है।”

“उसी निंदा से बचने के लिए लोग ऐसा करते हैं मजबूरी में”

“यह पाप है ,,,!”

“आप ऐसा कह सकते हैं ? ,,,,,,भले ही मजबूरी में किया, पर किया तो,,, पाप होने से बच गया!”

“इसी दिखावे की तो मैं बात कर रहा हूँ,,, जो पाप है।”

“मैं भी इसी दिखावे को बाकी दिखावों से अच्छा बता रहा हूँ!”

“यहाँ तुलनात्मक कुछ नहीं,,, दिखावा करने वाला,,,, वो तो बहुत बडे पाप का भागी है । ,,, दिखावा झलक जाता है ,,, और अपयश ही देता हैं!”

“सही बात है, लेकिन दिखावा कहीं-कहीं हमको कुछ अच्छा करने के लिए भी प्रेरित करता है!,,, कभी कभी दूसरे का दिखावा करना हमसे कुछ अच्छा करा देता है । दिखावा करके किसी का मन दुखाने से बच गया और इसी से उसका पाप थोड़ा कम हो जाए”

“मन से दोनों पक्ष समझते हैं, ऊपर बैठा ईश्वर भी तो देखता है,,,,, कुछ नहीं बचता, कुछ कम नहीँ होता ।” मैंने ठंडी सांस लेकर कहा “खैर! हम विषय से भटक गये ,,, विषय मजबूरी में,,,, दिखावे में,,,किया गया अपव्यय था ,,, वो चाहे धन का हो या भावनाओं का, दोनों ही मजबूरी पैदा करता है जो कुरीतियों को, रूढ़ि को जन्म देती हैं ।”

“आपकी बात से मैं पूर्णता सहमत नहीं हूं । जैसे मजबूरी में भी यदि हम ब्राह्मण भोजन करा रहे हैं,,, विप्र पूजन कर रहे हैं,, तो वह अच्छा है।”

“फिर वही बात?,,,, यहाँ श्रद्धारहित दबाव से मजबूर होकर किया गया ब्राह्मण-भोज या विप्र-पूजन पाप का भागी बनाता है ,,, जो करता है उसे भी, और जो करवाता है उसे भी ।”

“बहुत जगह मजबूरी भी है भाई साहब !”

“बस यही विषय है।,,,, और यह दबाव मजबूरी पैदा करता है और यही मजबूरी कुरीतियों को पैदा करती है । और यही खतरनाक है ,,।”

“बिल्कुल है, लेकिन वह मजबूरी में ही नहीं हो रहा, वह दिखावे के लिए हो रहा है।”

“यही किसी का किया हुआ, चाहे अनजाने में ही किया गया,, यह दिखावा किसी और की मजबूरी पैदा करता है, इंसान को मजबूर करता है ,,, उदाहरण बन जाता है ।,,,,यह भी रूढ़ि का कारक है ,,, मन का विकार / सामाजिक अन्याय । ,,,, देखो उसने तो किया फिर तुम क्यों नहीं ? ,, और फिर मजबूरी के दलदल में घिर हभ घिर जाते हैं,, और यही कुरीतियों का कारक है।,,,, किसी का सहज दिखावा किसी के लिए गले की फांस बन जाता है ,, सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देता है ,, साजिश के तहत किया पाप ,, चाहे जाने – चाहे अनजाने !”

“अरे भाईसाहब ! हम कहां मजबूरी से चले थे और कुरीतियों पर आ गए ?” वो हंस दिया ।

“मित्र! यह बात समझ लो,,, मजबूरी कुरीतियों की जननी है और दबाव मजबूरी का पिता।”

“चलिए भाईसाहब! यह भी अच्छा है, आज मजबूरी के माता-पिता दोनों का पता चल गया !” – वो हंसने लगा था ।

“नहीं जी !” – मैं बोला “अभी मजबूरी के पिता का पता चला है, ,, माता को खोजना रह गया ।” मैं भी हंसने लगा ।

और हम दोनों भी अपनी-अपनी सीट पर लेट गये ।

– क्रमशः

– द्वारा श्रीविद्येश चतुर्वेदी

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