देखा प्रभाव प्रभु-चमत्कार का ।
टूटा दर्पण अहंकार का ।।
साधन सम्प्रभुता के बल पर,
रहे समझते खुद को ईश्वर ।
दीन-हीन साधन-हीनों को,
समझें जैसे चींटी-मच्छर ।।
खुद को खुदा समझने वालो !
जन-धन पर इतराने वालो !
संहारक-शस्त्रों के बल पर,
दुनियां को धमकाने वालो !!
देखो दृश्य अब प्रकृति-वार का ।
टूटा दर्पण अहंकार का ।।
मांसाहारी हुए निरंकुश,
जीव-जन्तुओं को खाकर खुश ।
सात्विक-भोजन देती प्रकृती,
तब भी करें प्रकृति में विकृती ।।
पालें नहीं प्रकृति-अनुशासन,
फूले सत्ता-मद-सिंहासन ।
करते रहे सदा अभिमानी,
जो विरुद्ध ईश्वर के भाषण ।।
अब रोवैं ज्यों श्वान द्वार का ।
टूटा दर्पण अहंकार का ।।
अब तो यह निलज्जता छोड़ो,
परम-तत्व से मत मुख मोड़ो ।
क्षण-भंगुर है मानव-जीवन,
अब तो यह मन प्रभु से जोड़ो ।
दया-धर्म को तुम अपनाओ,
सदाचार सद्भाव बढाओ ।
बार-बार ना मिले मनुज-तनु,
सब नश्वर,समझो समझाओ ।।
पथ 'बसन्त' ये ही उद्धार का ।
टूटा दर्पण अहंकार का ।।
जयश्रीकृष्ण ! जयति पद्मबन्धो:सुता !!
– द्वारा आचार्य श्री बसंत जी चतुर्वेदी
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