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धर्म-कर्म (चौथी कहानी)

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“आत्महत्या” – भाग -1

रेलगाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी, रात भी चरम पर थी । अलसाई आँखों में नींद आने लगी थी । बुजुर्ग साइड-लोअर सीट पर खर्राटे ले रहे थे ।

महिला से मैंने पूछा- “आपके स्टेशन आने में अभी देर है, चाहें तो नीचे ही लेट लीजिए । हम दोनों मित्र ऊपर वाली बर्थ में सो जाते हैं । ,,,,, बस एक निवेदन है, आपका जब भी स्टेशन आये, हमें जगा जरूर दीजियेगा ।”

“जी,,, धन्यवाद!”

यह कह वह महिला नीचे वाली बर्थ पर लेट गई और हम दोनों मित्र ऊपर वाली बर्थ पर जाकर सो गये। पता नहीं कब आँख लग गई और हम सभी गहरी नींद में सो गये ।

अचानक बड़ी ज़ोर की आवाज़ आने से नींद खुल गई । अहसास हुआ कि रेलगाड़ी रुक गई है । मैं ऊपर बर्थ से नीचे उतरा तो देखा रेलगाड़ी किसी सुनसान जगह पर रुकी है। कोई स्टेशन नहीं था। लगता था कि कोई गाड़ी के नीचे आ गया है, ,, जानवर ,,, या इंसान,, पता नहीं । चैन-पुलिंग हुई थी शायद। हम चारों ही उठ गये थे। मैंने दरवाजा खोल कर बाहर झांक कर देखने की कोशिश की। अंधेरा बहुत घना था, कुछ भी अंदाजा नहीं लगा।

बुजुर्ग बोले-“क्या हुआ?”

“पता नहीं! कुछ अंदाजा नहीं लग पा रहा है ।” मैंने दरवाजे पर बाहर झांकते हुए ही बोला ।

“रेलगाड़ी इतनी अंधेरी रात में ऐसी सुनसान जगह पर रुक गई है, जैसे जिन्दगी रुक जाती है, ।” बुजुर्ग बोलकर सुबकने लगे ।

“क्या हुआ साहिब, रेलगाड़ी ही तो है और यह भी सफर है। ,,,,,रात है तो दिन भी होगा, रुकी है तो चल भी पड़ेगी, क्या फर्क पड़ता है?” मैं बोला

“कुछ नहीं, ,,, बस कुछ याद आगया।”

“क्या, बताइए! बताकर दिल हल्का हो जायेगा ।”

“कुछ नहीं, बस अपना बेटा याद आ गया ।”

“बेटा, ,,,, क्या हुआ,,,,, बताइए तो।”

“आपको पता है, मेरा एक बेटा था। सुन्दर, जवान, सुशील,,,, पर ,,,,।” अपने बहते आंसुओ को पोंछते हुये बुजुर्ग बोले।

“क्या हुआ था उन्हें?” महिला ने संवेदनापूर्ण भाव से पूछा ।

“कुछ नहीं बेटा, बस हमारी किस्मत ही फूट गई थी। पढ़ाया-लिखाया, जैसे भी जितना हो सका, किया। सात बेटियों के बाद हुआ था। जितना हो सका लाड़-प्यार किया। अच्छी कंपनी में नौकरी भी लगवा दी थी। हमारे मिलने वाले उस कंपनी में अच्छी पोजीशन पर थे। उनसे बात करके अजमेर में नौकरी लगवा दी थी। अच्छा काम था, वो अजमेर जाकर खुश भी था। फिर एक दिन ,,,,,,,, ।” और बुजुर्ग के सब्र का बांध टूट गया और वो रोने लगे ।

मैं और वो दोनों उनके पास जाकर उन्हें सांत्वना देने लगे।

“क्या, बीमार हो गया था ?” वो बोला

“नहीं, ,,, दस साल हुये, सुबह 11 बजे करीब मेरी तीसरी बेटी के रिश्ते की बात करने के लिए हम निकल रहे थे, ताला लगा ही रहे थे, कि वो मनहूस फोन की घंटी बजी। बीबी बोली, आप रिक्शा रुकवाओ जब तक मैं फोन सुनकर आती हूँ । ,,, और फिर ,,,, मैं रिक्शा रुकवाता उससे पहले ही बीबी की आवाज़ आई,,, अजी सुनते हो ! जल्दी आओ, अजमेर से फोन आया है।,,,, बीबी की आवाज़ में घबराहट थी। मैं दौड़ कर वापस गया,,, फोन सुना ,,, दूसरी तरफ से मुन्ना के आफिस वाले थे, बोले, आप जल्दी से अजमेर आ जाओ । ,,, कहाँ भुवनेश्वर और कहाँ अजमेर । ,,,,कैसे अचानक आ जायें, ,,, क्या हुआ, ,,, हजारों सवाल एक साथ मन में आ गये थे। मुन्ना के आफिस वाले बोले हमने आपके लिए जहाज का टिकट करवा दिया है, दो बजे तक हवाई अड्डे पर पहुंच जाना है। ,, क्या हुआ मुन्ना को, कुछ नहीं बोले, बस यही बोले कि टिकट करवा दिया है, आप जल्दी आजाओ । ,,, हम दोनों बेटी की बात करने जाते कि हवाई-अड्डा,, हवाई-जहाज, उसमें कैसे बैठते हैं, कैसै जाते हैं, कुछ भी तो तब पता नहीं था । अब तो चलो हमारा बड़ा जमाई दो बार हमको हवाईजहाज से कलकत्ता ले गया है, पर तब तो बस हवा में उड़ते ही देखे थे। क्या करते, गये, बीबी का रो-रो कर बुरा हाल। तब भी हमारा बड़ा जमाई ही आया था हमें जहाज में बैठाने। बोला, हम भी चलते हैं आपके साथ । हम दोनों शाम सात बजे जयपुर पहुंचे। वहां मुन्ना के आफिस के लोग आये थे हमें लेने । हमने पूछा तो रोते हुए बोले, मनीष को आज सुबह आफिस आना था, पर वो नहीं आया। हम बोले, अरे भाई क्यों नहीं आया तो बोले उसने आत्महत्या कर ली। हम बोले, आत्महत्या,,,, क्या बोलते हो,,,,, तो बोले ये चिट्ठी मिली उसके कमरे से। ,, हम बोले हमार मुन्ना अब कैसा है तो बोले वो तो चल बसा। हम बोले क्या कहते हो,,,, हमारी तो जैसे चलती हुई ट्रेन ही रुक गई थी। आंखो में यही घना अंधेरी छा गई थी । चिट्ठी भी पढ़ नहीं पा रहे थे । हमारा बड़ा जमाई पढ़ा और बोला, लिखा है, कोनो लड़की है उसका लगन है आज सो हम मर रहे हैं । हम बोले, अरे भाई कौन लड़की है, और मुन्ना काहे जान दिया, उसका लगन है तो है, वो काहे जान दे गया। जमाई बाबू बोले शायद उससे मुन्ना लगन करना चाहे रहा, किसी और से लगन हुआ इसलिए जान दे दिया ।” और बुजुर्ग पुराने दर्द भरे लम्हों में खो गये थे। आंसू सूख गये थे, आंखें पथरा गई थीं । हाव-भाव शून्य ।

जिंदगी जैसे रेलगाड़ी की तरह रुक गई थी। सामने हमारे भी घना अंधेरा छा गया था ।

“ऐसे कैसे जान दे दी। जान दे दी, वो भी लड़की का ब्याह कहीं और हो गया इसलिए । वो लड़की ही यूं तो उसका संसार हो गई। और उनका क्या,,,,,, बूढ़े माँ-बाप, सात बहनें, परिवार, सबकी आशायें, उम्मीदें,,,,,।,,,,, बाकि कुछ नहीं ।,,,, हद है।”

कल से कुछ लिख-पढ़-सोच नहीं पा रहा हूँ !

डा0 कुमार विश्वास ने ऐसे मौके के लिये कहीं लिखा है ना –
“ज़रा उनकी तो सोचो यार, जिन्हें तुम्हारे पूरे टूट जाने के बाद तुम्हारी ही किरचें अकेले चुननी पड़ती हैं …
“खुद से भी मिल न सको इतने पास मत होना,
इश्क़ तो करना मगर देवदास मत होना..!”

मैं यह सोच ही रहा था कि पथराई आंखों से निहारते हुये बुजुर्ग बोले, -“पता है, अब तो दस साल हो गये, हम तो जी ही रहे हैं । भूल तो नहीं सकते मुन्ना को पर जीना भी नहीं छोड़ सकते। मुन्ना तो अब नहीं है, पर पांच जमाई हैं, वो हमारे मुन्ना ही तो हैं । दो बेटी शादी नहीं की, नहीं तो सात मुन्ना होते। हमें बड़ा प्यार करते हैं सब। दोनों बेटी जो शादी नहीं की, हम उनके साथ रहते हैं । उनकी माँ तो मुन्ना के जाने के बाद से ही बीमार रहती है, पर ठीक है। मरने वाले के साथ कोई मर थोड़े ही जाता है। और फिर अभी बहुत काम है, बड़ी बेटी के दो बच्चे हैं, दोनों की शादी कर दिए हैं , छोटे की गोद-भराई भी अगले महीने होगी, वो भोपाल रहता है, वहां भी जाना है। दूसरी बिटिया तो एक ही बच्चा की, वो भी वकालत की पढ़ाई कर रहा है। तीसरी बिटिया और चौथी बिटिया तो शादी की नहीं । पांचवी का मरद तो फौज में है, वो अभी बार्डर पर है। छठी बिटिया के तो हम अभी हो के ही आये हैं, वो जो हमको स्टेशन पर छोड़ने आया था, बहुत अच्छा है, सरकारी दफ्तर में मुलाजिम है । और हमारी छोटी तो छोटी ही है अभी तक। खुद स्कूल में पढ़ाती है पर खुद बच्चा ही है। बोलती है, हम तो तीसरा बच्चा करेंगे। भाई के लिए बहन ना हो तो संस्कार नहीं आते। उसके दो लड़का हैं, अब बेटी और करेगी। पता नहीं क्या दीमाग है आजकल बच्चों का।”

अपने परिवार में उलझा हुआ वो शख्स जी रहा था। उसका मुन्ना होता तो शायद हौसला और भी बुलंद होता पर फिर भी जीवन की ज़िम्मेदारी को वहन करने का जज्बा कम ना था, प्रणाम था जिन्दगी के जीने की हिम्मत को।

रेलगाड़ी थी कि सरक ही नहीं रही थी। नींद भी अब हम चारों की आंखों से गायब थी।

वो बोला – “पता है भाईसाहब, मेरे बड़े भाई साहब हैं, उनका एक ही सपना था कि उनके दोनों बेटे इंजीनियर बनें और बेटी डाक्टर । बड़ा बेटा तो इंजीनियर हो गया और बेटी भी डाक्टर पर तीसरा इंजीनियर नहीं हो पाया। बहुत कोशिश की, उसको कोटा भी भेजा कोचिंग के लिए, लाखों रुपये भी लगाये पर इंजीनियरिंग नहीं कर पाया, एक दिन खबर आई कि बेटा सांतवे माले से नीचे कूदा और मर गया।”

“ऐसे कैसे मर जाते हैं ये लोग।” मैं थोड़ा तैस में आ गया था।”क्या सफलता ही जीने का मापदंड है? सभी सफल होंगे तो असफल कौन होगा? सफल ही होते रहेंगे तो सफलता का मजा कैसे आयेगा। असफलता क्या है, यह पता हो तभी तो सफलता का पता चलेगा, उसका आनंद होगा। यह अभिभावकों की गलती है। हम बच्चों को सफल होने का पुरजोर धक्का तो देते हैं परन्तु असफलता को पार कर सफल होने का कोई मार्ग नहीं दिखाते। हमारे, समाज के, आस-पड़ौस क्या कहेगा, रिश्तेदार क्या कहेंगे, बड़े होकर क्या करेंगे, आदि हजारों-करोड़ों प्रकार के ये अथाह दबाव आत्महत्या का बड़ा कारण हैं । जीवन को जीने की कला हम सिखा नहीं पाते और ना ही संघर्ष करने की प्रतिरोधक क्षमता हम सृजन कर पाये हैं ।,,,, “

“एक बात बताइए कि जिसके पास शोहरत है, दौलत है, नाम है, वो क्यों आत्महत्या करता है ?” महिला बोली
“जिसमें जीवन जीने की प्रतिरोधक क्षमता की कमी हो जाएगी, वो आत्महत्या कर लेगा। शौहरत-दौलत से प्रतिरोधक क्षमता का सृजन नहीं होता । यह सृजन होता है, ईश्वर पर पूर्ण विश्वास करने से। वो ईश्वर जो हमारे मन-मस्तिष्क में बसा है। उसे आत्मबल भी कह सकते हैं ।”

मैं सहमा सा बोल रहा था। “संबल देने के लिए कोई तो होना चाहिए। संसार में ज्ञानियों की भरमार होते हुए भी लोग दुखी और परेशान क्यों हैं ? संसार में हैं तो सही पर समय पर – वक्त-जरूरत मिलें तो लाभ हो। पहली बात परेशान को पता हो कि कौन ज्ञानी है जिससे सुकून मिले दूसरे ज्ञानी विश्वासपात्र, या ज्ञानी है भी कि नहीं कैसे पता। इसलिए घर के बड़े,,, अनुभवी ,, समझदार तो हमें पता होते ही हैं, और उनमें उपरोक्त दोनों विशेषता होती हैं,,, उनसे सलाह करें तो समस्याओं का समाधान निश्चित है। इधर-उधर भटकने से अच्छा है अपने परिवारजनो के पास बैठें। यही हमारे परिवार-समाज की परिकल्पना का आधार है। प्रश्न उठता है कि कौन किस के पास जाएं। दुखी या ज्ञानी? दुखी को ही जाना पड़ेगा,,, प्यासा ही कुएं के पास जाता है,,,,और यदि ज्ञानी को ज्ञान हो जाये कि उक्त परिवारजन दुखी है, तो वो भी चला जाए तो कोई हर्ज़ नहीं । मुद्दा छेड़कर देख ले कि दुखी उससे दुःख साझा करना भी चाह्ता है कि नहीं,,,, अगर दुखी साझा करे तो सलाह दे नहीं तो ,,,, तो ,,,, तो,,,ज्ञानी के परेशान के पास जाने में केवल एक कष्ट है, कहीं मान-ना-मान-मैं-तेरा-मेहमान वाली स्थिति ना हो जाये। इसलिए दुखी को ही ज्ञानी के पास जाना पड़ेगा । आदमी दूसरों से नहीं हारता ना ही उसका आत्मबल कमजोर होता है। लेकिन अपनों से सामना न कर पाने पर हार जाता है और उसका आत्मबल टूट जाता है। पर यह भी समझना इंपोर्टेंट है कि जो हमारा आत्मबल तोड़ दे, जो हमें हराने की सोच रखता हो वो हमारा अपना हुआ कहाँ । अपना तो वह है जो हारे हुए का आत्मबल बढाने में सहायता करे ना कि उसके आत्मबल को तोड़ कर ही दम ले।”

वो बोला- “सिनेजगत के कई गुरुदत्त जैसे सितारे हों या सिल्क-स्मिता जैसी अदाकारा । हिटलर की आत्महत्या हो या आत्महत्या को उत्साहित कुप्रेरित-आत्मघाती-वहसी-जेहादी-दरिंदे,,, प्रतियोगिता में असफल शिक्षार्थी हो या रोज़गार में नाकामयाब नौकर, परिवार की जिम्मेदारी को ना संभाल पाने वाला असफल कर्ता हो या पति के जुल्म से तंग आकर आत्महत्या करने वाली अबला, , प्यार में धोखा खाया हुआ असफल प्रेम हो या बड़ा अवांछित नुकसान देख हारा हुआ व्यापारी। जीवन से हार मानना कहाँ उचित है?,,,, और फिर हेलमेट ना पहन दोपहिया चलाना हो या बिना सीट-बैल्ट के चौपहिया चलाना, ज़बरन आत्महंता होना कहाँ सही है ?”

“आत्महत्या तो रानी पद्मिनी व अन्य हजारों वीरांगनाओं ने भी की थी और चंद्रशेखर आज़ाद ने भी की। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व लाखों लाख देश पर मर-मिटने वाले देशभक्त जांबाज, हंसते-हंसते फांसी पर लटक गये। सरहद पर पता है कभी भी जान जा सकती है, फिर भी सैनिक देशहित में जान निछावर करने जाते हैं, वीरगति को प्राप्त होते हैं। आत्महत्या का एक रूप यह भी है, परन्तु यहाँ हारा हुआ नहीं बल्कि जीता हुआ देवतुल्य इंसान है। इसका पुराणों में, किंवदंतियों में महिमामंडन है। और यह आत्महत्या नहीँ अपितु बलिदान है। इसे स्वतः प्राण निछावर करना कहते हैं, आत्महत्या नहीं ।” बुजुर्ग बोले

मैं बोला- “मेरे अनुसार आत्महत्या का मुख्य कारण तनाव है, अवसाद है। तनाव के क्षणों में अगर कोई ऐसा मिल जाये जो उस तनाव को कम कर सके, तो आत्महत्या हो ही नहीं सकती।”

“ऐसा कौन होगा वह ज्ञानी जो हमारे भीतर की अंधेरी को मिटा सके।” वो बोला

“आजकल तो एकल परिवार का चलन है। कौन किसकी सुनता है और कौन बीच में किसी के बोलता है।” महिला बोली

“यही तो दुर्भाग्य है आज की पीढ़ी का। दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, मामा-मामी, फूफा, बुआ, मौसा-मौसी, सास-ससुर,,,,और ना जाने कितने सुन्दर रिश्ते हैं हमारे भारतीय-पन में।,,,, बचपन में तो सबका सब पर अधिकार होता देखा। दूर की बुआ-मौसी भी अधिकार से हस्तक्षेप कर लेती थी आपस के मसलों में । गंभीर से भी गंभीर मसले चुटकी में हल होते देखे। इसीलिए शायद तब आत्महत्या ना के बराबर थीं।” मैं बोला

“सही कहा महात्मन्! ,,, खैर, समय बदला है, समय का परिवेश बदला है। एकल परिवार भी अब तो नितांत एकल में परिवर्तित हो रहा है। शादी भी नहीं करते, शादी करें तो बच्चे नहीं करते, बच्चे करें तो वो भी एकलौता। कैरियर जमाने में जवानी निकाल जाते हैं शादी करने। अरे भाई, जवानी अकेले निकाल दिये तो काहे लडकी को फांस रहे हो। अब तो नया रिवाज़ चल पड़ा है, कोई कमिटमेंट नहीं, पर रहो साथ मियाँ-बीबी की तरह और कभी भी उठ कर चले जाइये किसी और के साथ। ,,,नहीं तो आपके पास आपकी बीबी होती है जिस पर पिताजी एक श्लोक कहा करते थे –
कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी
भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा।
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री

भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥
कार्य प्रसंग में मंत्री, गृहकार्य में दासी, भोजन कराते वक्त माता, रति प्रसंग में रंभा, धर्म में सानुकुल, और क्षमा करने में धरित्री; इन छे गुणों से युक्त पत्नी मिलना दुर्लभ है ।,,,, उस समय दुर्लभ थी पर मिलती थी, हमें भी मिली। पर इस पीढ़ी का क्या करें? , ,,, अब सोचो,,,, कहाँ तो परिवार बने और कहाँ वो कंधा मिले, जिस पर सर रख हम कभी अपने रोने रो लिया करते थे। दिल हलका हो तो कहाँ, कैसे। अब तो यह हाल है कि अपने बच्चों से भी कुछ बोल नहीं सकते।” बुजुर्ग बोले

मैं बोला “सही है जी, समय बदला है तो व्यवस्था बदली। व्यवस्था बदली तो व्यवहार बदले। तनाव के उन क्षणों में मज़बूत लोग भी आत्महत्या कर लेते हैं।?”

“मैंने तो अब रोज-रोज की किच-किच से अकेला रहना सीख लिया है जी। खुद की खुद से दोस्ती, ना काहू से बोलना और ना काहू से बैर। अपने में मस्त रहो, बस, अलमस्त।”

“तो फिर खुद से ही दोस्ती कर लो। हमारे अंदर कहते हैं ना भगवान हैं, उससे मेलजोल कर लो। सब उससे बात करो, जो कहे वो, वो करो। पर यह डगर मुश्किल है। एकांत की साधना बड़ी कठिन है। ना जगा पाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं।” बुजुर्ग बोले

“वैसे एक बात समझो, कमी कहाँ रह रही है ?,,, कमी रह रही है एक अदद दोस्त की, एक अदद राजदार की, हमसफर की, हमराज की। ,,, वो ,,, वो ऐसा दोस्त जो साथ बैठ एक चाय पीने के लिए दस-पंद्रह किलोमीटर अलग से चला आये, एक आवाज़ पर खिंचा चला आये। चाय की चुस्की के साथ बेतुकी बात पर खिलखिला उठे। जिससे अपने दिल को खोल तनाव कम कर सकें। वो आवाज़ जो कहे, टेंशन मत ले यार, मैं हूँ ना, साथ मिलकर निपटाते हैं ना इसे। , ,,,सारी दुनिया एक तरफ और वो हमप्याला, वो हमसफर, वो दोस्त, वो राजदार एक तरफ। यही तो मायना कर जाता है और वो यार है आपके पास, तो चले जाइये एक शाम चाय पर, जिन्दगी बहुत हसीन लगेगी और वह है जो आपके तनाव से जूझ सकता है और उसके साथ की एक कप चाय!”

“क्या बात कही है साहब,, एक कप चाय एक दोस्त के साथ। वाह ,, वाह , और चाय भी अगर चरित्रवान मिल जाये तो क्या बात है।” – वो बोला और हम सब हंसने लगे।

रेलगाड़ी ने भी चलने की सीटी बजा दी।

– द्वारा माथुर-चतुर्वेद श्रीविद्येश

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