धर्म-कर्म – (चौथी कहानी)

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आत्महत्या – भाग – 2

अब रेलगाड़ी खिसकी तो हम अपनी-अपनी सीट पर जाने लगे।

वो बोला “नींद ना रही हो तो और बात करें?”

मैंने दृष्टि घुमाकर देखा तो पाया सब बात करने में ही इच्छुक थे। हम फिर बैठ गये।
वो बोला- “एक अपना अनुभव साझा करता हूँ ।उसमें एक प्रश्न भी है। उत्तर बताना।” वो बोला “मैं किसी समय किसी कंपनी के लिये वसूली का काम करता था। करीब-करीब पच्चीस साल हुये,,,, बीकानेर में मैं और मेरा एक साथी एक चौधरी के घर वसूली के लिये गये। दो साल से उसने कोई पैसा कंपनी में जमा नहीं किया था। मूल रकम ही उस समय डेढ़ लाख थी। ब्याज वगैरह मिलाकर करीब दो लाख की वसूली बनती थी। हमें यह जिम्मा पहली बार मिला था, सो, हम उसके घर पहुँचे। शहर के बाहर। क्या देखते हैं, टूटा-फूटा घर, दीवारें बिना पलस्तर। छत थी ही नहीं, और कमरों के बीच की भी दीवारें आधी-पडती। दरवाज़ा भी नहीं था। दोपहर के दो बज रहे थे, जून का महीना, चिलचिलाती धूप, भयंकर गर्मी के कारण बुरे हाल। सर पर गमछे का फेंटा मारे हम पसीने में लथ-पथ। घर के बाहर ही क्या देखते हैं, एक फटे-हाल बूढ़ा कीकर के पेड़ के नीचे खाट पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। हम पहुंचे तो वो मुझे पहचान गया, बोला, अरे अशोक तू यहाँ कहाँ? मैं भी नजर गढ़ा कर पहचानता हुआ बोला, कौन मोडा,,,, अरे ये क्या हाल कर लिया है। बोला कुछ नहीं यार, हालात बदल गये। समय की मार है। चल आ, कई साल हुये मिले, अब मिला है तो तीतर के शिकार पर चलें, बहुत दिन हुए तीतर जीमे हुये। तू आया है तो हो जाये। मैं बोला, मोडा तूने दिन में ही कच्ची लगा रखी है । और ये क्या हाल कर लिया। तू तो सही था, पांच-सात गाड़ी का मालिक, शहर में घर,,, सब बढ़िया था तेरा, ,, अब क्या हुआ, और यहाँ कैसे,,,, शहर के घर का क्या हुआ? मन में हजारों सवाल आ रहे थे । वो बोला बैठ तो , सब बताउंगा, पहले बता क्या पायेगा, चाय या शर्बत ? उसकी हालत देख मन तो नहीं हो रहा था परन्तु उसके आतिथ्य का अनादर भी तो नहीं कर सकता था। चाय पी लेते हैं । चहरे पर मुस्कुराहट बिखेरते हुए उसने आवाज़ लगाई, अरी बहू, चार चाय बना दे, एक तू भी पी लेना। आज मेरा अशोक आया है। थोड़ी देर में उस घर से एक विधवा-भेष औरत निकली, हाथ में स्टील की प्लेट पर रखी तीन कप चाय थी। बिना कुछ बोले, प्लेट खाट पर रख वो वापस अंदर चली गई । मैंने पूछा, ये ,,,, ये कौन, ,,, बोला अपने छोरे की घरवाली है। हम दोनों ससुर-बहू ही तो हैं यहाँ । ले चाय पी। कप का हैण्डल भी टूटा था। हमने चाय पी, वसूली तो दूर कुछ बात करने की हिम्मत ही ना हुई । वो खुद ही बोला। गुड्डू और उसकी माँ दो साल हुये कार एक्सीडेंट में मर गये। कितने अरमान से बहू लाया था, अरे अपने तारा की ही तो बेटी है। मैंने पूछा, कौन तारा, वो जिसकी शहर में बड़ी डेयरी है ? हाँ, वही। पिछली बार जब तू आया था, जिसके साथ हम शिकार पर गये थे, वही तारा, मेरे लंगोटिया । गुड्डू के मरने के बाद मैंने खूब कहा , बेटी, अपने घर चली जा, तो बोलती है, जब तक तुम जिन्दा हो मैं कहीं ना जानी। जाते वकत वो कह गये थे, मेरे बापू का ख्याल रखना, तो मेरा धरम यही है। पगली है। अरे जब तक शहर के घर में थे तब भी सही था, पर अब इस घर में रह कर मेरे साथ यह भी नरक भोग रही है। सब पिछले जन्मों का पाप लगे है, मेरा भी, इसका भी। मैं बाहर पड़ा रहता हूँ और ये भीतर। चल छोड़, तू बता तेरे क्या हाल ? भाभी-बच्चे ठीक? हाँ, ठीक हैं । चाय पी कर हम विदा ले छोटू-मोटू लाॅज में आ गये। क्या हुआ, कैसे हुआ, ऐसा कैसे हो सकता है। शहर का नामी चौधरी , सब कुछ तो था जब पिछली बार मिले थे। फिर क्या हुआ ऐसा। मन नहीं लग रहा था। शहर में निकल पड़ा । कइयों से जानकारी ली, तो पता चला बेटे और बीबी के मरने के बाद मोडा पगला सा गया था। जवान बेटा मरा था, बीबी जो संभालती वो भी साथ में मर गई थी। देखभाल के लिये दोनों बेटी-जमाई साथ रहने लगे । कब जाने मोडा से कागजातों पर रिश्तेदारों ने दस्तखत करवा लिए और छह महीने पहले मोडा को घर से निकाल दिया । हैरानी वाली बात यह थी कि उसकी दोनों बेटी-जमाई भी शामिल थे। बेटी-जमाई का षडयंत्र में शामिल होने का विश्वास ना हुआ पर जिस ट्रक की वसूली करने हम आये थे वो ट्रक तो छोटे जमाई की देखरेख में अब भी चल रहा था। दोनों जमाई ठेकेदारी का काम करते थे और उनके भी पंद्रह-बीस ट्रक-डंपर जैसलमेर में इंदिरा नहर के काम में लगे थे। हमारा डंपर भी वहीं चल रहा था। उनके हिस्से में आया था, ऐसा पता चला। बहू साथ में चली गई नहीं तो कौन ख्याल रखता। बड़ी-बड़ी चौधरी स्टाइल की मूंछ, रौबदार चहरा, सफेद धोती-कुर्ता, शहर में नाम, साफ छवि। अब वैसा कुछ भी तो ना था। बहू भी चुपचाप साथ हो ली थी। सबके सामने बोला था, वो कह गये हैं मेरे बापू का ख्याल रखना मरने तक, और साथ चली गई । शहर से बाहर प्लाट पर दोनों रहने लगे। बहू मजदूरी करके जो कमा लेती है, उससे उनका घर चल रहा था। मोडा तो बिलकुल बेकार हो चुका था। ,,,, मन ना माना, रात को ही छोटी बेटी-जमाई के यहाँ हम पहुंच गये। जमाई मिला, बोला, जो करना है कर लो, वैसे भी कर्जा उनहोंने लिया है, वसूली-कोर्ट-कचहरी जो करना है उन पर करो। मैंने कहा भी कि गाड़ी तो तुम्हारी देखरेख में चलती है और उसकी कमाई भी तुम लेते हो, तो बोला जो करना है कर लो। हिम्मत है तो गाड़ी पकड़ लो। हम अपना सा मुंह लिए वापस लाॅज में आ गये । रात भर सोये नहीं । सुबह सात बजे ही मोडा के घर पर थे। बाहर सो रहा था उसी खाट पर। जगाया । हम बोले चलो जैसलमेर चलते हैं । हमने सब पता लगा लिया है तुम्हारे साथ क्या हुआ और तुम्हारा हमारे वाला डंपर कहाँ है। उसे कब्जे में ले लेते हैं । तो मोडा बोला, अरे रुक अशोक, मेरी भी सुनेगा। मैंने बहुत कहा पर वो नहीं माना। बोला बेटी के पास है, कैसे वापस लूं। मैंने कहा तुमने हाथ उठा के दिया था क्या। बोला नही, पर छोड़ ना , है तो बेटी-जमाई के पास ही ना। और फिर मैं अब क्या करूँगा उसका, मैं तो चलाने से रहा। मैंने उसे बहुत समझाया पर वो नहीं माना। बोला अभी नहा लूं, फिर इकट्ठा नाशता करेंगे। कल भी तू केवल चाय पीकर चला गया था। आज तो नाशता ही करेंगे । बहू को आवाज़ देकर बोला, बहू मैं नहा के आऊँ तब तक कुछ बना दे। कुछ घर में है कि नहीं, नहीं तो मैं ले आऊंगा । मोडा नहाने गया तो मैंने अपने साथी को भेज हम चारों के लिए कचौरी व जलेबी मंगवा ली। जब तक मोडा आया गरमागरम कचौरी-जलेबी आ चुकी थीं । बहुत नाराज हुआ मोडा मुझपर। खाते-खाते भी उसे बहुत समझाया पर वो नहीं माना। यही बोलता रहा मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। हम वहां से सीधा जैसलमेर गये जहाँ वो डंपर चल रहा था और सात दिन की मशक्कत कर , जोड़-जुगाड़ से डंपर अपने कब्जे में ले लिया और सीधा जोधपुर के दफ्तर वालों के हवाले कर दिया, और हम वापस जयपुर आ गये। पूरी फारमेलटी कर के बेचने में तीन महीने निकल गये। वो डंपर बेचकर कंपनी मोडा से कुछ वसूली की कार्रवाई करती पर मेरे रिकमेंडेशन से केस को सेटल कर दिया। उसका पूरा ब्यौरा लिखित में मुझसे लिया। थोड़े दिन बाद खबर आई कि मोडा कुछ दिन हुए उसी कीकर की डाल से लटका मिला। उसने फांसी लगा ली थी। सुना कि उस डंपर को ही लेके जमाई ने उससे बहुत झगड़ा किया। बेटी भी पति की तरफ से बोली। और इसी बीच मोडा ने आत्महत्या कर ली। बहू ने अंतिम-संस्कार किया और वो कहाँ गई किसी को पता नहीं । ,,,, मेरे तो मानो पैर के नीचे से जमीन निकल गई। ए-सी में भी पसीने आ गये। आंखें डबडबा गईं । हाथ-पैर कांपने लगे। ,,,, ये क्या किया मैंने, ,,,, पाप कर दिया। और फिर थोड़े दिन बाद ही मेरी दायीं आंख से दिखना बंद हो गया। मुझे अब भी लगता है कि उसकी आत्महत्या मेरे कारण हुई और मुझे ईश्वर ने एक आंख खराब करके दी। ,,, मैंने फिर वो वसूली का काम भी छोड़ दिया। ,,,,,, अब मैं आप लोगों से पूछता हूँ, मुझसे पाप हुआ था ना, और उसकी सजा भी मिली, यह सही है ना ?”

उसकी यह घटना सुन हम सब स्तब्ध हो गये थै, जड़वत हो गये।

थोड़े अंतराल तक सन्नाटा छाये रहा।
तब बुजुर्ग बोले – “मैं नहीं मानता कि तुमसे कोई पाप हुआ उसकी गाड़ी को जब्त कर बेचने में । अरे भाई आपने तो उलटा उसे कर्जे से मुक्ति दिलाई । रही बात उसकी आत्महत्या की तो उसके जिम्मेदार वो सब हैं जिन्होंने उसे धोखा देकर संपत्ति से बेदखल किया। पाप उन्होंने किया जिनके कारण अच्छा भला खाता-कमाता बंदा और उसकी बहू ने इतने दुःख उठाये। उन्हीं के कारण उसने आत्महत्या की। पाप के भागी वो सब हैं, आप नहीं । हमारी दादी से बचपन में सुना था कि हक्की का हक कभी ना खाये नहीं तो सात जन्मों तक कीड़े पड़ते हैं। ,,,, आप की आंख में परेशानी किसी और कारण हुई पर चूंकि समय आपके अपराध-बोध का चल रहा था तो आपके मन में बैठ गया । निश्चिंत रहें आपसे कोई पाप नहीं हुआ और नी ही आप उसकी आत्महत्या के दोषी हैं ।”

मन में मेरे विचार आया कि करोड़ों करोड़ लोग रोज पैदा हो रहे हैं और उतने ही मर भी रहे हैं । अगर जीवन मरण ईश्वर के हाथ है तो मानव स्वयं का हंता कैसे व क्योंकर हुआ । ईश्वर की इच्छा के या मृत्यु का समय के ना आने पर भी क्या मानव स्वयं की हत्या कर सकता है। अपने प्राण-पखेरू उड़ा सकता है। अगर हाँ, तो सांसें विधि के हाथ कैसे। ,,,,, क्या आत्मा इस कारण भटकती है। ,,,,,क्या सभी आत्महत्या असफलता का परिणाम हैं या ईश्वर की मंशा के विपरीत कार्य या फिर ईश्वर की मंशा से ही, विधि के विधान के अनुसार ही परलोक गमन या, अपनी मर्जी ।,,,,,कई प्रश्न हैं, करोड़ों करोड़ व्याख्या हैं, पर उत्तर क्या इतना सरल है ? मानव इन प्रश्नों में उलझा जिये जा रहा है।

आत्महत्या तो विकृत मन का ही निर्णय और परिणाम होता है, जीवन में सफलता-असफलता तो प्रतिदिन का ही क्रम है, जैसे श्वास लेना व छोड़ना। चलनी में दूध छान कर कर्मों को दोष देना। ,, ,,,, मृत्यु ही क्यों? ईश्वर के हाथ में तो सभी कुछ है। फिर भी कर्म करते हैं कि नहीं? भागवत में कृष्ण नंदबाबा से कहते हैं – महेन्द्रः किं करिष्यति। कर्मैव प्रभुरीश्वरः।

एक कथा है ना,,, निर्धनता से दुखी हो कर जब काश्यप आत्महत्या के लिये तत्पर हो गया, तब वहां एक सियार आया और उससे बात करने लगा-
अहो सिद्धार्थता तेषां येषां संतीह पाणय:।
अतीव स्पृहये तेषां येषां संतीह पाणय:॥
पाणिमद्भ्य:स्पृहास्माकं यथा तव धनस्य वै।
न पाणिलाभादधिको लाभश्कश्चन विद्यते॥

अहो , मनुष्य नाम के प्राणी का यह कैसा सौभाग्य है कि विधाता ने उसे दस उंगलियों वाले दो हाथ दिये हैं!
मैं तो दो हाथों वाले को धन्य मानता हूं। काश! मुझे भी दो हाथ मिले होते !
तुम धन के लिये स्पृहा कर रहे हो,
पर मुझे तो हाथों वाले से स्पृहा हो रही है । दो हाथों से बडी उपलब्धि और क्या हो सकती है?

वेदव्यास ने अपने इस पात्र के माध्यम से मनुष्य के दस उंगलियों वाले दो हाथों की महिमा का प्रतिपादन किया है। समस्त सभ्यता इन दो हाथों की रचना है। जिसके पास दो हाथ हैं, वह धरती का विधाता है।

रेलगाड़ी खिसक रही थी,,,,

– द्वारा माथुर चतुर्वेद श्रीविद्येश

(आत्महत्या- भाग 3 कुछ दिनों में)

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